Om Shanti
Om Shanti
कम बोलो, धीरे बोलो, मीठा बोलो            सोच के बोलो, समझ के बोलो, सत्य बोलो            स्वमान में रहो, सम्मान दो             निमित्त बनो, निर्मान बनो, निर्मल बोलो             निराकारी, निर्विकारी, निरहंकारी बनो      शुभ सोचो, शुभ बोलो, शुभ करो, शुभ संकल्प रखो          न दुःख दो , न दुःख लो          शुक्रिया बाबा शुक्रिया, आपका लाख लाख पद्मगुना शुक्रिया !!! 

05-03-15 प्रातः मुरली ओम् शान्ति “बापदादा” मधुबन



05-03-15      प्रातः मुरली      ओम् शान्ति      “बापदादा”      मधुबन




सार:- “मीठे बच्चे - तुमने बाप का हाथ पकड़ा है, तुम गृहस्थ व्यवहार में रहते भी बाप को याद करते-करते तमोप्रधान से सतोप्रधान बन जायेंगे

प्रश्न:-    तुम बच्चों के अन्दर में कौन सा उल्लास रहना चाहिए? तख्तनशीन बनने की विधि क्या है?

उत्तर:- सदा उल्लास रहे कि ज्ञान सागर बाप हमें रोज ज्ञान रत्नों की थालियां भर- भर कर देते हैं । जितना योग में रहेंगे उतना बुद्धि कंचन होती जायेगी । यह अविनाशी ज्ञान रत्न ही साथ में जाते हैं । तख्तनशीन बनना है तो मात-पिता को पूरा-पूरा फालो करो । उनकी श्रीमत अनुसार चलो, औरों को भी आप समान बनाओ ।


ओम् शान्ति |

रूहानी बच्चे इस समय कहाँ बैठे हैं? कहेंगे रूहानी बाप की युनिवर्सिटी अथवा पाठशाला में बैठे हैं । बुद्धि में है कि हम रूहानी बाप के आगे बैठे हैं, वह बाप हमको सृष्टि के आदि- मध्य- अन्त का राज समझाते हैं अथवा भारत का राइज और फाल कैसे होता है, यह भी बताते हैं । भारत जो पावन था वह अब पतित है । भारत सिरताज था फिर किसने जीत पाई है? रावण ने । राजाई गँवा दी तो फाल हुआ ना । कोई राजा तो है नहीं । अगर होगा भी तो पतित ही होगा । इस ही भारत में सूर्यवंशी महाराजा-महारानी थे । सूर्यवंशी महाराजायें और चन्द्रवंशी राजायें थे । यह बातें अब तुम्हारी बुद्धि में है, दुनिया में यह बातें कोई नहीं जानते । तुम बच्चे जानते हो हमारा रूहानी बाप हमको पढ़ा रहे हैं । रूहानी बाप का हमने हाथ पकड़ा है । भल हम रहते गृहस्थ व्यवहार में हैं परन्तु बुद्धि में है कि अभी हम संगमयुग पर खड़े हैं । पतित दुनिया से हम पावन दुनिया में जाते हैं । कलियुग है पतित युग, सतयुग है पावन युग । पतित मनुष्य पावन मनुष्यों के आगे जाकर नमस्ते करते हैं । हैं तो वह भी भारत के मनुष्य । परन्तु वह दैवीगुण वाले हैं । अभी तुम बच्चे जानते हो हम भी बाप द्वारा ऐसे दैवीगुण धारण कर रहे हैं । सतयुग में यह पुरूषार्थ नहीं करेंगे । वहाँ तो है प्रालब्ध । यहाँ पुरूषार्थ कर दैवीगुण धारण करने हैं । सदैव अपनी जाँच रखनी है - हम बाबा को कहाँ तक याद कर तमोप्रधान से सतोप्रधान बन रहे हैं? जितना बाप को याद करेंगे उतना सतोप्रधान बनेंगे । बाप तो सदैव सतोप्रधान है । अभी भी पतित दुनिया, पतित भारत है । पावन दुनिया में पावन भारत था । तुम्हारे पास प्रदर्शनी आदि में भिन्न-भिन्न प्रकार के मनुष्य आते हैं । कोई कहते हैं जैसे भोजन जरूरी है वैसे यह विकार भी भोजन है, इनके बिना मर जायेंगे । अब ऐसी बात तो है नहीं । सन्यासी पवित्र बनते हैं फिर मर जाते हैं क्या! ऐसे-ऐसे बोलने वाले के लिए समझा जाता है कोई बहुत अजामिल जैसे पापी होंगे, जो ऐसे-ऐसे कहते हैं । बोलना चाहिए क्या इस बिगर तुम मर जायेंगे जो भोजन से इनकी भेंट करते हो! स्वर्ग में आने वाले जो होंगे वह होंगे सतोप्रधान । फिर पीछे सतो, रजो, तमो में आते हैं ना । जो पीछे आते हैं उन आत्माओं ने निर्विकारी दुनिया तो देखी ही नहीं है । तो वह आत्मायें ऐसे-ऐसे कहेंगी कि इन बिगर हम रह नहीं सकते । सूर्यवंशी जो होंगे उनको तो फौरन बुद्धि में आयेगा - यह तो सत्य बात है । बरोबर स्वर्ग में विकार का नाम- निशान नहीं था । भिन्न-भिन्न प्रकार के मनुष्य, भिन्न-भिन्न प्रकार की बातें करते हैं । तुम समझते हो कौन-कौन फूल बनने वाले हैं? कोई तो कांटे ही रह जाते हैं । स्वर्ग का नाम है फूलों का बगीचा । यह है कांटों का जंगल । कांटे भी अनेक प्रकार के होते हैं ना । अभी तुम जानते हो हम फूल बन रहे हैं । बरोबर यह लक्ष्मी-नारायण सदा गुलाब के फूल हैं । इनको कहेगे किंग ऑफ फ्लावर्स । दैवी फ्लावर्स का राज्य है ना । जरूर उन्होंने भी पुरूषार्थ किया होगा । पढ़ाई से बने हैं ना ।

तुम जानते हो अभी हम ईश्वरीय फैमिली के बने हैं । पहले तो ईश्वर को जानते ही नहीं थे । बाप ने आकर के यह फैमिली बनाई है । बाप पहले स्त्री को एडाप्ट करते हैं फिर उन द्वारा बच्चों को रचते हैं । बाबा ने भी इनको एडाप्ट किया फिर इन द्वारा बच्चों को रचा है । यह सब ब्रह्माकुमार-कुमारियां हैं ना । यह नाता प्रवृत्ति मार्ग का हो जाता है । सन्यासियों का है निवृत्ति मार्ग । उसमें कोई मम्मा-बाबा नहीं कहते । यहाँ तुम मम्मा-बाबा कहते हो । और जो भी सतसंग हैं वह सब निवृत्ति मार्ग के हैं, यह एक ही बाप है जिसको मात-पिता कह पुकारते हैं । बाप बैठ समझाते हैं, भारत में पवित्र प्रवृत्ति मार्ग था, अब अपवित्र हो गया है । मैं फिर से वही प्रवृत्ति मार्ग स्थापन करता हूँ । तुम जानते हो हमारा धर्म बहुत सुख देने वाला है । फिर हम और पुराने धर्म वालों का संग क्यों करें! तुम स्वर्ग में कितने सुखी रहते हो । हीरे-जवाहरातों के महल होते हैं । यहाँ भल अमेरिका रशिया आदि में कितने साहूकार हैं परन्तु स्वर्ग जैसे सुख हो न सके । सोने की ईटों जैसे महल तो कोई बना न सके । सोने के महल होते ही हैं सतयुग में । यहॉ सोना है ही कहाँ । वहाँ तो हर जगह हीरे-जवाहरात लगे हुए होंगे । यहाँ तो हीरों का भी कितना दाम हो गया है । यह सब मिट्टी में मिल जायेंगे । बाबा ने समझाया है नई दुनिया में फिर सब नयी खानियां भरतू हो जायेंगी । अभी यह सब खाली होती रहेंगी । दिखाते हैं सागर ने हीरे-जवाहरातों की थालियां भेंट की । हीरे-जवाहरात तो वहाँ तुमको ढेर मिलेंगे । सागर को भी देवता रूप समझते हैं । तुम समझते हो बाप तो ज्ञान का सागर है । सदा उल्लास रहे कि ज्ञान सागर बाप हमें रोज ज्ञान रत्नों, जवाहरातों की थालियां भरकर देते हैं । बाकी वह तो पानी का सागर है । बाप तुम बच्चों को ज्ञान रत्न देते हैं, जो तुम बुद्धि में भरते हो । जितना योग में रहेंगे उतना बुद्धि कंचन होती जायेगी । यह अविनाशी ज्ञान रत्न ही तुम साथ ले जाते हो । बाप की याद और यह नॉलेज है मुख्य ।

तुम बच्चों को अन्दर में बड़ा उल्लास रहना चाहिए । बाप भी गुप्त है, तुम भी गुप्त सेना हो । नान वायोलेन्स, अन-नोन वारियर्स कहते हैं ना, फलाना बहुत पहलवान वारियर्स है । परन्तु नाम-निशान का पता नहीं है । ऐसे तो हो नहीं सकता । गवर्मेंट के पास एक-एक का नाम निशान पूरा होता है । अननोन वारियर्स, नानवायोलेन्स यह तुम्हारा नाम है । सबसे पहली-पहली हिंसा है यह विकार, जो ही आदि-मध्य- अन्त दु:ख देते हैं इसलिए तो कहते हैं - हे पतित-पावन, हम पतितों को आकर पावन बनाओ । पावन दुनिया में एक भी पतित नहीं हो सकता । यह तुम बच्चे जानते हो, अभी ही हम भगवान के बच्चे बने हैं, बाप से वर्सा लेने, परन्तु माया भी कम नहीं है । माया का एक ही थपड़ ऐसा लगता है जो एकदम गटर में गिरा देती हैं । विकार में जो गिरते हैं तो बुद्धि एकदम चट हो जाती है । बाप कितना समझाते हैं- आपस में देहधारी से कभी प्रीत नहीं रखो । तुमकी प्रीत रखनी है एक बाप से । कोई भी देहधारी से प्यार नहीं रखना है, मुहब्बत नहीं रखनी है । मुहब्बत रखनी है उनसे जो देह रहित विचित्र बाप है । बाप कितना समझाते रहते हैं फिर भी समझते नहीं । तकदीर में नहीं है तो एक-दो की देह में फँस पड़ते हैं । बाबा कितना समझाते हैं - तुम भी रूप हो । आत्मा और परमात्मा का रूप तो एक ही है । आत्मा छोटी-बड़ी नहीं होती । आत्मा अविनाशी है । हर एक का ड्रामा में पार्ट नूँधा हुआ है । अभी कितने ढेर मनुष्य हैं, फिर 9 - 10 लाख होंगे । सतयुग आदि में कितना छोटा झाड़ होता है । प्रलय तो कभी होती नहीं । तुम जानते हो जो भी मनुष्य मात्र हैं उन सबकी आत्मायें मूलवतन में रहती हैं । उनका भी झाड़ है । बीज डाला जाता है, उनसे सारा झाड़ निकलता है ना । पहले-पहले दो पत्ते निकलते हैं । यह भी बेहद का झाड़ है, गोले पर समझाना कितना सहज है, विचार करो । अभी है कलियुग । सतयुग में एक ही धर्म था । तो कितने थोड़े मनुष्य होंगे । अभी कितने मनुष्य, कितने धर्म हैं । इतने सब जो पहले नहीं थे वह फिर कहाँ जायेंगे? सभी आत्मायें परमधाम में चली जाती हैं । तुम्हारी बुद्धि में सारा ज्ञान है । जैसे बाप ज्ञान का सागर है वैसे तुमको भी बनाते हैं । तुम पढ़कर यह पद पाते हो । बाप स्वर्ग का रचयिता है तो स्वर्ग का वर्सा भारतवासियों को ही देते हैं । बाकी सबको वापस घर ले जाते हैं । बाप कहते हैं मैं आया हूँ तुम बच्चों को पढ़ाने । जितना पुरूषार्थ करेंगे उतना पद पायेंगे । जितना श्रीमत पर चलेंगे उतना श्रेष्ठ बनेंगे । सारा मदार पुरूषार्थ पर है । मम्मा-बाबा के तख्तनशीन बनना है तो पूरा-पूरा फालो फादर मदर । तख्तनशीन बनने के लिए उनकी चलन अनुसार चलो । औरों को भी आपसमान बनाओ । बाबा अनेक प्रकार की युक्तियां बतलाते हैं । एक बैज पर ही तुम किसको भी अच्छी रीति बैठ समझाओ । पुरूषोत्तम मास होता है तो बाबा कह देते चित्र फ्री दे दो । बाबा सौगात देते हैं । पैसे हाथ में आ जायेंगे तो जरूर समझेंगे, बाबा का भी खर्चा होता है ना तो फिर जल्दी भेज देंगे । घर तो एक ही है ना । इन ट्रांसलाइट के चित्रों की प्रदर्शनी बनेगी तो कितने देखने आयेंगे । पुण्य का काम हुआ ना । मनुष्य को कांटे से फूल, पाप आत्मा से पुण्य आत्मा बनाते हैं, इसको विहंग मार्ग कहा जाता है । प्रदर्शनी में स्टाल लेने से आते बहुत हैं । खर्चा कम होता है । तुम यहाँ आते हो बाप से स्वर्ग की राजाई खरीद करने । तो प्रदर्शनी में भी आयेंगे, स्वर्ग की राजाई खरीद करने । यह हट्टी है ना ।

बाप कहते हैं इस ज्ञान से तुमको बहुत सुख मिलेगा, इसलिए अच्छी रीति पढ़कर, पुरूषार्थ करके फुल पास होना चाहिए । बाप ही बैठ अपना और रचना के आदि-मध्य- अन्त का परिचय देते हैं, और कोई दे न सके । अब बाप द्वारा तुम त्रिकालदर्शी बनते हो । बाप कहते हैं मैं जो हूँ, जैसा हूँ, मुझे यथार्थ रीति कोई नहीं जानते । तुम्हारे में भी नम्बरवार हैं । अगर यथार्थ रीति जानते तो कभी छोड़ते नहीं । यह है पढ़ाई । भगवान बैठ पढ़ाते हैं । कहते हैं मैं तुम्हारा ओबीडियन्ट सर्वेंट हूँ । बाप और टीचर दोनों ओबीडियंट सर्वेंट होते हैं । ड्रामा में हमारा पार्ट ही ऐसा है फिर सबको साथ ले जाऊंगा । श्रीमत पर चल पास विद् ऑनर होना चाहिए । पढ़ाई तो बहुत सहज है । सबसे बूढ़ा तो यह पढ़ाने वाला है । शिवबाबा कहते हैं मैं बूढ़ा नहीं । आत्मा कभी बूढ़ी नहीं होती । बाकी पत्थर बुद्धि बनती है । मेरी तो है ही पारसबुद्धि, तब तो तुमको पारसबुद्धि बनाने आता हूँ । कल्प-कल्प आता हूँ । अनगिनत बार तुमको पढ़ाता हूँ फिर भी भूल जायेंगे । सतयुग में इस ज्ञान की दरकार ही नहीं रहती । कितना अच्छी रीति बाप समझाते हैं । ऐसे बाप को फिर फारकती दे देते हैं इसलिए कहा जाता है महान मूर्ख देखना हो तो यहाँ देखो । ऐसा बाप जिससे स्वर्ग का वर्सा मिलता है, उनको भी छोड़ देते हैं । बाप कहते हैं तुम मेरी मत पर चलेंगे तो अमरलोक में विश्व के महाराजा-महारानी बनेंगे । यह है मृत्युलोक । बच्चे जानते हैं हम सो पूज्य देवी-देवता थे । अभी हम क्या बन गये हैं? पतित भिखारी । अब फिर हम सो प्रिन्स बनने वाले हैं । सबका एकरस पुरूषार्थ तो हो न सके । कोई टूट पड़ते हैं, कोई ट्रेटर बन पड़ते हैं । ऐसे ट्रेटर्स भी बहुत हैं उनसे बात भी नहीं करनी चाहिए । सिवाए ज्ञान की बातों के और कुछ पूछे तो समझो शैतानी है । संग तारे कुसंग बोरे । जो ज्ञान में होशियार बाबा के दिल पर चढ़े हुए हैं, उनका संग करो । वह तुमको ज्ञान की मीठी-मीठी बातें सुनायेंगे । अच्छा ।


 
मीठे-मीठे सिकीलधे सर्विसएबुल, वफादार, फरमानबरदार बच्चों को मात- पिता बापदादा का याद-प्यार और गुडमॉर्निग । रूहानी बाप की रूहानी बच्चों को नमस्ते ।





धारणा के लिए मुख्य सार:-

1. जो देह रहित विचित्र हैं, उस बाप से मुहब्बत रखनी हैं । किसी देहधारी के नाम-रूप में बुद्धि नहीं फँसानी हैं । माया का थपड न लगे, यह सम्भाल करनी हैं ।

2. जो ज्ञान की बातों के सिवाए दूसरा कुछ भी सुनाए उसका संग नहीं करना हैं । फुल पास होने का पुरूषार्थ करना हैं । कांटों को फूल बनाने की सेवा करनी हैं ।



वरदान:- स्वमान द्वारा अभिमान को समाप्त करने वाले सदा निर्मान भव !

जो बच्चे स्वमान में रहते हैं उन्हें कभी भी अभिमान नहीं आ सकता, वे सदा निर्माण होते हैं । जितना बड़ा स्वमान उतना ही हाँ जी में निर्माण । छोटे बड़े, ज्ञानी- अज्ञानी, मायाजीत या मायावश, गुणवान हो या कोई एक दो अवगुणवान भी हो अर्थात् गुणवान बनने का पुरूषार्थी हो लेकिन स्वमान वाले सभी को मान देने वाले दाता होते हैं अर्थात् स्वयं सम्पन्न होने के कारण सदा रहमदिल होते हैं ।

स्लोगन:-  स्नेह ही सहज याद का साधन है इसलिए सदा स्नेही रहना और स्नेही बनाना ।

Vices to Virtues: 33: संस्कार परिवर्तन


Vices to Virtues: 33: संस्कार परिवर्तन





Bapdada has told us to cremate our old sanskars. (Sanskar ka sanskar karo) Not just to suppress them, but to completely burn them, so there is no trace or progeny left. Check and change now. Have volcanic yoga ( Jwala swaroop) Let us work on one each day.


बापदादा ने कहा है के ज्वाला  मुखी  अग्नि  स्वरुप  योग  की  शक्ति  से  संस्कारों  का संस्कार करो ; सिर्फ मारना नहींलेकिन  जलाकर नाम रूप ख़त्म कर दो.... चेक और चेन्ज करना ... ज्वाला योग से अवगुण और पुराने संस्कार जला देना ...हररोज़ एक लेंगे और जला देंगे...



पुराने वा अवगुणों का अग्नि संस्कार   : ३३ ..............निंदा, ग्लानी करना,  कोमेन्ट क्रिटिसाइज करना ....... बदलकर   मैं आत्मा  सभी की विशेषतायें देखने वाली, स्वचिन्तन और शुभचिंतन करती हूँ....



Cremate our old sanskars 33.......to speak ill of others, to defame others, to make bad comments and criticize others.......... replace them with seeing specialties in others....contemplating on the self and having good wishes for all.....



Poorane va avguno ka agni sanskar...33.......ninda glani karna, comment criticize karna.........badalkar.... mai atma sabhi ki visheshtae dekhne wali , swachintan aur shubh chintan karti hun ......





पुराने वा अवगुणों का अग्नि संस्कार   : ३३ ..............निंदा, ग्लानी करना,  कोमेन्ट क्रिटिसाइज करना ....... बदलकर   मैं आत्मा  सभी की विशेषतायें देखने वाली, स्वचिन्तन और शुभचिंतन करती हूँ....


 मैं आत्मा परमधाम शान्तिधाम शिवालय में हूँ ....... शिवबाबा के साथ हूँ ..... समीप हूँ .... समान हूँ ..... सम्मुख हूँ .....  सेफ हूँ ..... बाप की छत्रछाया में हूँ .....अष्ट इष्ट महान सर्व श्रेष्ठ हूँ ...... मैं आत्मा मास्टर ज्ञानसूर्य हूँ .... मास्टर रचयिता हूँ ..... मास्टर महाकाल हूँ ..... मास्टर सर्व शक्तिवान हूँ ..... शिव शक्ति कमबाइनड  हूँ  ........ अकालतक्खनशीन  हूँ ....अकालमूर्त हूँ ..... अचल अडोल अंगद एकरस एकटिक एकाग्र स्थिरियम अथक और बीजरूप  हूँ ........ शक्तिमूर्त ..... संहारनीमूर्त ...... अलंकारीमूर्त ..... कल्याणीमूर्त हूँ ......शक्ति सेना हूँ ..... शक्तिदल हूँ ...... सर्वशक्तिमान हूँ ......  रुहे गुलाब .... जलतीज्वाला .... ज्वालामुखी ....  ज्वालास्वरूप .... ज्वालाअग्नि हूँ .... निंदा, ग्लानी करना,  कोमेन्ट क्रिटिसाइज करना .......  ........अवगुणों का आसुरी संस्कार का अग्नि संस्कार कर रही हूँ ........ जला रही हूँ ...... भस्म कर रही हूँ ......  मैं आत्मा महारथी महावीर ........ निंदा, ग्लानी करना,  कोमेन्ट क्रिटिसाइज करना ................ के  मायावी संस्कार पर विजयी रूहानी सेनानी हूँ .......... मैं आत्मा सभी की विशेषतायें देखने वाली, स्वचिन्तन और शुभचिंतन करती हूँ.... मैं देही -अभिमानी ..... आत्म-अभिमानी..... रूहानी अभिमानी .....परमात्म अभिमानी..... परमात्म ज्ञानी ..... परमात्म भाग्यवान..... सर्वगुण सम्पन्न  ..... सोला  कला सम्पूर्ण ..... सम्पूर्ण निर्विकारी .....मर्यादा पुरुषोत्तम  ...... डबल अहिंसक  हूँ ..... डबल ताजधारी ..... विष्व  का मालिक हूँ ..... मैं आत्मा ताजधारी ..... तख़्तधारी ..... तिलकधारी ..... दिलतक्खनशीन  ..... डबललाइट ..... सूर्यवंशी शूरवीर ....... महाबली महाबलवान ..... बाहुबलि पहलवान ....... अष्ट भुजाधारी अष्ट शक्तिधारी   अस्त्र शस्त्रधारी शिवमई शक्ति हूँ ..... 



Cremate our old sanskars 33.......to speak ill of others, to defame others, to make bad comments and criticize others.......... replace them with seeing specialties in others....contemplating on the self and having good wishes for all.....


I am a soul...I reside in the Incorporeal world...the land of peace...Shivalaya...I am with the Father...I am close to the Father...I am equal to the Father...I am sitting personally in front of the Father...safe...in the canopy of protection of the Father...I am the eight armed deity...a  special deity...I am great and elevated...I, the soul am the master sun of knowledge...a master creator...master lord of death...master almighty authority... Shivshakti combined...immortal image...seated on an immortal throne...immovable, unshakable Angad, stable in one stage, in a constant stage, with full concentration....steady, tireless and a seed...the embodiment of power...the image of a destroyer...an embodiment of ornaments...the image of a bestower...the Shakti Army...the Shakti  troop...an almighty authority...the spiritual rose...a blaze...a volcano...an embodiment of a blaze...a fiery blaze...I am cremating the sanskar of  speaking  ill of others, to defaming others, making  bad comments and criticizing  others.......... I am burning them...I am turning them into ashes...I, the soul am a maharathi...a mahavir...I am the victorious spiritual soldier that is conquering the vice of ... speaking  ill of others, to defaming others, making  bad comments and criticizing  others........... with seeing specialties in others....contemplating on the self and having good wishes for all........I, the soul, am soul conscious, conscious of the soul, spiritually conscious, conscious of the Supreme Soul, have knowledge of the Supreme Soul, am fortunate for knowing the Supreme Soul.....I am full of all virtues, 16 celestial degrees full, completely vice less, the most elevated human being following the code of conduct, doubly non-violent, with double crown...I am the master of the world, seated on a throne, anointed with a tilak, seated on Baba’s heart throne, double light, belonging to the sun dynasty, a valiant warrior, an  extremely powerful and  an extremely strong wrestler with very strong arms...eight arms, eight powers, weapons and armaments, I am the Shakti merged in Shiv...



Poorane va avguno ka agni sanskar...33.......ninda glani karna, comment criticize karna.........badalkar.... mai atma sabhi ki visheshtae dekhne wali , swachintan aur shubh chintan karti hun ......


mai atma paramdham shantidham, shivalay men hun...shivbaba ke saath hun...sameep hun...samaan hun...sammukh hun...safe hun...baap ki chhatra chaaya men hun...asht, isht, mahaan sarv shreshth hun...mai atma master gyan surya hun...master rachyita hun...master mahakaal hun...master sarv shakti vaan hun...shiv shakti combined hun...akaal takht nasheen hun...akaal moort hun...achal adol angad ekras ektik ekagr sthiriom athak aur beej roop hun...shaktimoort hun...sanharinimoort hun...alankarimoort hun...kalyani moort hun...shakti sena hun...shakti dal hun...sarvshaktimaan hun...roohe gulab...jalti jwala...jwala mukhi...jwala swaroop...jwala agni hun... ninda glani karna, comment criticize karna.........avguno ka asuri sanskar kar rahi hun...jala rahi hun..bhasm kar rahi hun...mai atma, maharathi mahavir ninda glani karna, comment criticize karna...............ke mayavi sanskar par vijayi ruhani senani hun...mai atma sabhi ki visheshtae dekhne wali , swachintan aur shubh chintan karti hun ..........mai dehi abhimaani...atm abhimaani...ruhani abhimaani...Parmatm abhimaani...parmatm gyaani...parmatm bhagyvaan...sarvagunn sampann...sola kala sampoorn...sampoorn nirvikari...maryada purushottam...double ahinsak hun...double tajdhaari vishv ka malik hun...mai atma taj dhaari...takht dhaari...tilak dhaari...diltakhtnasheen...double light...soorya vanshi shoorvir...mahabali mahabalwaan...bahubali pahalwaan...asht bhujaadhaari...asht shakti dhaari...astr shastr dhaari shivmai shakti hun...

Daily Positive Thoughts: March 05, 2015: Healthy Expectations

Daily Positive Thoughts: March 05, 2015: Healthy Expectations





Iguazu Falls, Boundary of Brazil and Argentina



Healthy Expectations

Expectations are important.  They define our boundaries & ground rules on how we allow others to treat us.

But often we assume others understand our expectations, so when our expectations are not met, we're hurt & disappointed.

To maintain healthy boundaries, learn to communicate expectations clearly & adjust unreasonable expectations.





Hero Actor

Normally it is understood that to get the best role is to be a hero
actor. So we are more inclined towards a role where we can get
people's praise. If people praise us we feel good about it and if
they don't we are disappointed. We are usually dependent on people's
appreciation. Yet it doesn't come by so consistently. We can be a
hero actor at all times when we have attention on every act of ours.
We make sure that none of our words or actions are ordinary or waste.
Since we pay constant attention to everything we do, we find that we
are able to give our best. We are then satisfied with whatever is
happening since we know what we do is not as important as how well we
do it.



The Three Mirrors For Inner Beauty (cont.)


In the last two days' messages, we have explained the first mirror for inner beauty.

The second mirror is the mirror of meditation - In the silence of meditation which is a connection or the experience of a relationship with the inner self and the Supreme Soul, each day you come close to and dive deep into both of them. When you create powerful, positive thoughts about the self and you also visualize your true spiritual self, you feel and experience your true virtuous being, what you are - radiant and free of all influences. That experience helps you to see yourself as you really are and in contrast to how you are now. Perhaps you feel peaceless, disturbed and dejected today, but by creating thoughts of peace and contentment in meditation you quickly realize that in reality that is your true nature. In that way, it serves as a mirror for self realization and checking and changing. When you visualize the Supreme Soul during meditation and experience His virtues, it helps you to see and quickly realize yourself in contrast to Him and make the required changes in yourself because the child should reflect the qualities of the Father.

So a good practice then is to look into this mirror and check yourself once in the morning before the day's activities and once before sleeping for 10 minutes each time. Also, since this is the most powerful mirror, it is extremely vital to carry this mirror with you throughout the day and check yourself in it for one minute after every hour. This may sound too much time given to the inner self to many, but all of us are aware that like an untidy, unkempt external self is not pleasing to the self and does not create a favorable impression on those who come in contact with us, in the same way that applies to the inner self also.  So one minute spent in looking into this mirror and doing some self-introspection and checking and changing will keep us looking good for the next fifty nine minutes and if we do mess up internally during those fifty nine minutes, then corrections can be made quickly in the next one minute break - it's as simple as that.

(To be continued tomorrow ....)


Soul Sustenance

The Five Spiritual And Five Physical Elements (Part 2)

There are three entities around which the whole World Drama revolves – the Supreme Soul, the human souls and nature. Nature includes everything non-living like mountains, rivers, seas etc. and living things like plants, trees etc. It also includes living beings like animals, birds, insects etc. which are souls with a lesser evolved intellect than human ones. The human body also comes under the category of nature. These three entities are in the form of a hierarchy, the Supreme Soul is the most powerful at the top of the hierarchy, in the middle are the human souls and at the bottom of the hierarchy is nature. The Supreme Soul always remains an Ocean of the five virtues peace, purity, wisdom, love and joy and is the only entity in which the balance of these virtues is always maintained right through eternity.

In human souls, as explained yesterday, in the beginning of the world cycle, in the Golden Age, these virtues are in balance. As human souls come down in the birth-rebirth cycle and start becoming influenced by body-consciousness or the five vices - anger, ego, greed, attachment and lust, all spiritual building blocks or virtues - peace, purity, wisdom, love and joy start getting depleted. In each soul, some virtues get depleted more, some less. In each and every soul the depletion is different depending on its actions e.g. in some soul the depletion of peace is immense compared to the other because of picking up sanskaras of anger on its journey and bringing them into actions or in some soul the depletion of joy is immense because of picking up a lot of attachment on the way etc. This depletion of the five spiritual elements or virtues upsets the balance between them. This depletion and imbalance causes negative spiritual energy waves or vibrations of sorrow, anger, impurity, hatred, fear etc. from human souls to spread in nature and starts having a negative influence on the five physical elements earth, air, water, fire and sky and even the five spiritual elements peace, purity, wisdom, love and joy in the souls of animals, birds, insects, etc. upsetting the balance of both. This is because nature (as defined in the above paragraph) is lowest in the hierarchy, lesser powerful and easily influenced by the energy that human souls transmit or radiate. This double imbalance of spiritual and physical elements results in peacelessness, sorrow, illness, poverty, natural calamities, accidents, ecological imbalances etc. When all of these reach their maximum extent, that Age is called the Iron Age. This is an interesting principle which needs to be understood clearly.

How do we restore the balance of the spiritual and physical elements? We shall explain that in tomorrow's message.

Message for the day

Cooperation creates space for learning and growth.

Expression: The one who cooperates and inspires cooperation is able to create a conducive environment for the progress of all. To inspire cooperation means to be able to relate to the positivity in those around. Relating to the positive aspect naturally inspires others to use their specialities for the success of the task. Their good wishes for the task too emerge very naturally.

Experience: Since I am able to relate to others' positivity, I find myself enriched with it. I subconsciously imbibe what I perceive. I get a chance and a space to learn and progress. The journey towards success in itself is a joyful experience and there is harmony in working with others. Thus I find success too easy to achieve as there is the contribution of each one's speciality for the task.


In Spiritual Service,
Brahma Kumaris


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