Om Shanti
Om Shanti
कम बोलो, धीरे बोलो, मीठा बोलो            सोच के बोलो, समझ के बोलो, सत्य बोलो            स्वमान में रहो, सम्मान दो             निमित्त बनो, निर्मान बनो, निर्मल बोलो             निराकारी, निर्विकारी, निरहंकारी बनो      शुभ सोचो, शुभ बोलो, शुभ करो, शुभ संकल्प रखो          न दुःख दो , न दुःख लो          शुक्रिया बाबा शुक्रिया, आपका लाख लाख पद्मगुना शुक्रिया !!! 

Dadi Janki – 29th August 2012 – Shantivan


Dadi Janki – 29th August 2012 – Shantivan

True happiness nourishes the soul
 
Dadiji has reminded us of the importance of volcanic yoga, and all of you must have given thought to implementing it further. Time is short. The more I am concerned about making effort from my heart, Baba helps accordingly. He supports us  alot . We have to end waste by paying attention. There is great power in our thoughts and time. 'Waste' snatches away our power. Waste makes us weak. When we are weak we lack the zeal and enthusiasm to make effort happily. Fortunate are those who can maintain zeal and enthusiasm in their effort-making. It's as though they are not walking but flying... The soul begins to practically experience the feelings behind the song, "Fly away O bird, this land is a stranger to you...' There is no connection with this old world. We are fortunate to have received wings from Baba.

Murli 31 august, 2012


[31-08-2012]

मुरली सार:- ''मीठे बच्चे - बाप तुम्हें बेहद का समाचार सुनाते हैं, तुम अभी स्वदर्शन चक्रधारी बने हो, तुम्हें 84 जन्मों की स्मृति में रहना है और सबको यह स्मृति दिलानी है'' 
प्रश्न: शिवबाबा का पहला बच्चा ब्रह्मा को कहेंगे, विष्णु को नहीं - क्यों? 
उत्तर: क्योंकि शिवबाबा ब्रह्मा द्वारा ब्राह्मण सम्प्रदाय रचते हैं। अगर विष्णु को बच्चा कहें तो उनसे भी सम्प्रदाय पैदा होनी चाहिए। परन्तु उनसे कोई सम्प्रदाय होती नहीं। विष्णु को कोई मम्मा बाबा भी नहीं कहेंगे। वह जब लक्ष्मी-नारायण के रूप में महाराजा महारानी हैं, तो उनको अपना बच्चा ही मम्मा बाबा कहते। ब्रह्मा से तो ब्राह्मण सम्प्रदाय पैदा होते हैं। 
गीत:- तुम्हीं हो माता पिता... 

पिता श्री ब्रह्मा बाबा



पिता श्री ब्रह्मा बाबा
(जिनके माध्यम से परमपिता शिव ने ज्ञान दिया)  
 संसार में वे लोग महान् और अनुकरणीय हैं, जिनका जीवन केवल अपने लिए नहीं, बल्कि मानवता की सेवा में समर्पित हो। अपने लिए तो सब जीते हैं, परंतु जो दूसरों के लिए सोचता है, वही महापुरुष होता है। जब जगत में मानवता कराह रही थी, मानवीय संवेदनाएं शून्य होने लगी थी, तब अज्ञानता के बढते तम को दूर करने के लिए एक ऐसी क्रांति की आवश्यकता महसूस होने लगी थी, जिससे मानवीय एकता और करुणा के मध्य एक मूल्यनिष्ठसमाज की स्थापना हो सके। ऐसी ही घडी में एक महान् विभूति का जन्म हुआ और आध्यात्मिक क्रांति की नींव पडी। इस महानायकका जन्म सन् 1876 में सिंध प्रांत में एक कुलीन परिवार में हुआ। इनके बचपन का नाम लेखराज था। परंतु ये बचपन से ही इतने धर्म परायण थे कि इनका व्यक्तित्व कुशल एवं प्रभावी होने के कारण हर वर्ग और उम्र के लोग इन्हें प्यार से दादा कहते थे। इन्हें किसी की भी पीडा खुद की पीडा महसूस होती थी। बाल्यकाल में ही इनके पिता की मृत्यु हो गई। दादा लेखराज प्रतिदिन सर्व मनुष्यात्माओंको दु:ख की पीडा से मुक्ति के लिए परमात्मा से आराधना करते थे। दादा लेखराज ने हीरे-जवाहरात का व्यापार शुरू किया और देखते ही देखते वे इस व्यापार में विश्व प्रसिद्ध हो गए। दादा के मन में सर्व सुखोंवाली दुनिया की खोज निरंतर रहती थी, जिसमें कि दु:ख-दरिद्रता का नामोनिशान न हो। इसके लिए दादा ने अपने जीवन काल में बारह गुरु किए थे। फिर भी उन्हें सच्चे परमात्मा पथ का राही कोई नहीं बना सका। साठ साल की आयु में दादा लेखराज के जीवन में एक महान् परिवर्तन आया। एक दिन जब वे वाराणसी में अपने मित्र के यहां आए थे तब उन्हें इस कलियुगी दुनिया के महाविनाशऔर नई दुनिया की स्थापना का साक्षात्कार हुआ। उस दौरान उनके तन में ईश्वरीय शक्ति की उपस्थिति थी। उस ईश्वरीय शक्ति ने दादा के अतीत और आदिकाल के संस्मरण सुनाए तथा कहा कि अब इस दुनिया को नई दुनिया बनाने का महान कार्य तुम्हें करना है। दादा को यह बात बिल्कुल समझ में नहीं आई और वे इसे अपने गुरुओं की करामात समझ उनसे इनके बारे में पूछने गए। सभी गुरु समझ गए थे कि यह तो ईश्वरीय सत्ता का ही कार्य है। ईश्वरीय सत्ता ने उनकी उलझनों को समाप्त कर दिया और अपना परिचय सर्व आत्माओं के पिता कल्याणकारी परमात्मा शिव के रूप में दिया। इस महान कार्य के लिए परमात्मा ने उन्हें उनका नाम दादा लेखराज से प्रजापिताब्रह्मा के नाम से नामकरण किया और माताओं-बहनों को ईश्वरीय शक्ति के रूप में आगे करने का आदेश दिया। इस आज्ञानुसार दादा लेखराज ने माताओं-बहनों के कोमल स्वभाव को जान उन्हें ईश्वरीय शक्ति के रूप में प्रत्यक्ष करने के लिए उन्हें वैभवों से दूर रहकर सभी भौतिक विद्याओं से परे राजयोग की शिक्षा के माध्यम से परमात्मशक्ति को अपनाकर अपने अंदर छिपी शक्तियों को प्रत्यक्ष करने को कहा। सभी धर्म और आध्यात्मिक लोगों की भावनाओं का सम्मान करते हुए दादा लेखराज ने उन्हें धर्म, अध्यात्म और सत्य तपस्या से अवगत कराकर उन्हें समाज में पैर जमा चुकी आसुरी शक्तियों से निकाल दैवी शक्तियों के लिए प्रेरित किया। यहीं से स्व-परिवर्तन से विश्व परिवर्तन के एक छोटे से कारवां का शुभारंभ हुआ। राजयोग को धार्मिक आध्यात्मिक और वैज्ञानिक विधि में परिभाषित कर दादा ने सर्व मनुष्यात्माओंके लिए सहज उपलब्ध कराया। प्रजापिताब्रह्मा बाबा आज साकार में नहीं हैं, परंतु उनकी सूक्ष्म दृष्टि और शक्ति आज भी लाखों आत्माओं को दैवी गुणों से सजाने का महान कार्य कर रही है। दादा लेखराज ने हीरे जवाहरात के व्यापार को छोड मनुष्यों के अन्दर छिपे हीरेतुल्यगुणों को परखने तथा उन्हें पुनस्र्थापितकरने के लिए अपना सब कुछ ईश्वरीय कार्य में समर्पण कर दिया। इस संस्था की स्थापना सिंध (जो अब पाकिस्तान में है) में ओम मण्डली के रूप में स्थापित हुई। दादा लेखराज को अनेक कठिनाइयों का सामना करना पडा। अनेक लांछन और आरोप लगाए गए परंतु विजय सत्य की हुई। भारत-पाकिस्तान विभाजन के बाद ईश्वरीय शक्ति के आदेशानुसार ब्रह्मा बाबा ने ऋषि मुनियों की तपोभूमि तथा नक्काशी में दुनिया भर में मशहूर दिलवाडामंदिर और नक्की झील के समीप तपस्या के लिए चयन किया, जिसका नाम पाण्डव भवन रखा और यहीं से प्रजापिता ब्रह्माकुमारी ईश्वरीय विश्व-विद्यालय की स्थापना हुई। धीरे-धीरे ये कारवां बढता गया। बाबा का उद्देश्य एक ऐसी दुनिया का निर्माण करना था, जहां दु:ख और दरिद्रता का नामोनिशान न हो। इसके लिए वे प्रकृति और पर्यावरण का ध्यान रख सतोप्रधानबनाने का प्रयास करते रहे। श्वेत वस्त्रों के बीच सजी बाल ब्रह्मचारिणी बहनों को उन्होंने इस संस्था में आगे रख भारत माता और वंदेमातरम् बन भारत और विश्व का उद्धार करने का अनुगामी बनाया और बाबा स्वयं एक निमित्त बन ईश्वरीय सेवा में लगे रहे और पूरे विश्व में अपना प्रभुत्व स्थापित किया। इस ईश्वरीय कार्य में सर्व मनुष्यात्माओंकी सेवा करते हुए बाबा ने तपस्या की ज्वाला से अपने आपको सोलह कला संपूर्ण और निर्विकारी बनाया। 18 जनवरी, 1969को अपने नश्वर शरीर का त्याग किया। परंतु बाबा द्वारा जो आध्यात्मिक शक्ति का बीज बोया गया वो आज विशाल रूप ले लिया है। बाबा आज भी सूक्ष्म रूप से ईश्वरीय शक्ति से इस आध्यात्मिक क्रांति में सम्मिलित लोगों को सजा रहे हैं। आज पूरे विश्व के 130देशों में यह संस्था वट वृक्ष का रूप ले चुकी है और लाखों लोग अपने जीवन को दैवी गुणों से सजाकर हीरे तुल्य बना रहे हैं।

परमात्मा सर्व व्यापक नही है


परमात्मा सर्व व्यापक नही है

मनुष्य क्या मानते और कहते आये है?

मनुष्य यह मानते और कहते आये है कि परमपिता परमात्मा सर्वव्यापक है परन्तु जैसे गर्म लोहे में अग्नि व्यापक होने पर भी दिखाई नहीं देती वैसे ही सत, चित, आनन्द स्वरूप परमात्मा सर्वव्यापक होने के वावजूद भी दिखाई नहीं देता | सबमे व्यापक होने के कारण परमात्मा को बे-अन्त या अनंत भी कहा गया है |

अब परमपिता परमात्मा शिव क्या समझा रहे हैं ?

अब परमात्मा कहते हैं - वत्सों, मैं सर्व में व्यापक नहीं हूँ बल्कि सर्व का परमपिता हूँ । मैं अव्यक्त मूर्त अर्थात्‌ प्रकाशस्वरुप हूँ । मेरा दिव्य रुप ज्योति बिन्दु है । मेरे उस रुप की बडी प्रतिमा भारत में शिवलिंग के नाम से पूजी जाती है । मेरे उसी रुप का एक प्रतीक दीप-शिखा भी है, इसलिए मन्दिरों में दीपक भी जगाये जाते हैं । मेरे अविनाशी ज्योति बिन्दु रुप का दिव्य चक्षु द्वारा साक्षात्कार भी किया जा सकता है । अत: मुझे कण-कण में, जल-थल में सब में व्यापक मानना महान भूल करना है क्योंकि वास्तव में सुर्य और तारागण के भी पार जो ज्योतिलोक, ब्रह्मलोक अथवा परलोक है, वही मेरा परमधाम है ।



वत्सो, लोहे मे जब अग्नि व्यापक होती है तो आप लोहे में अग्नी के गुण गर्मी का अनुभव कर सकते हैं । अत: यदि लोहो में अग्नि की तरह, मैं भी सर्व में व्यापक होता तो आपको मेरे भी आनन्द, शान्ति, प्रेम, पवित्रता, शक्ति आदि गुणों का सर्व में अनुभव हो पाता । परन्तु आप देखते है कि आज इस मनुष्य सृष्टि में तो पवित्रता की बजाय अपवित्रता, सुख की बजाय दुःख और शान्ति की बजाय अशान्ति ही सर्वव्यापक है | अत: मेरे गुण, व्यापक न होकर, विपरीत गुण व्यापक होने से यह सत्यता स्पष्ट है कि इस सृष्टि में मैं सर्वव्यापक नहीं हूँ बल्कि माया (काम, क्रोध, लोभ, मोह, अंहकार, ईर्ष्या, द्वेष, सुस्ती आदि) व्यापक है |

वत्सो, मैं तो ब्रह्मधाम का वासी हूँ और वहाँ से ही धर्म ग्लानि के समय इस मनुष्य सृष्टि में ‘आदि सनातन देवी-देवता धर्म’ की पुन: स्थापना के लिए आता हूँ और सभी को मुक्ति तथा जीवन मुक्ति का ईश्वरीय जन्म-सिद्ध अधिकार दे जाता हूँ |

वत्सो, मुझ ज्योतिस्वरूप परमात्मा को सर्वव्यापक मानने के परिणामस्वरूप तो मनुष्य का मन भी सर्व में भटक गया है और मुझ एक ज्योति बिन्दु परमपिता के साथ उनका मनोयोग न रहने के कारण वे आज सम्पूर्ण पवित्रता, सुख तथा शान्ति रूपी ईश्वरीय वर्से से वंचित हो गये है |

वत्सो, मैं कोई लम्बाई-चौड़ाई के विचार से बे-अन्त नहीं हूँ बल्कि अनादि और अविनाशी होने के कारण बे-अन्त हूँ क्योंकि मेरा कभी भी अन्त अथवा विनाश नहीं होता | मुझे ज्ञान का सागर, शान्ति का सागर, आनन्द का सागर और प्रेम का सागर कहा गया है और इन अथाह गुणों के कारण (न कि सर्वव्यापक के कारण) भी मुझे बे-अन्त कहा जा सकता है | इसके अतिरिक्त जो ऋषि-मुनि मुझे नहीं जान सके, उन्होंने भी अपनी अल्पज्ञता ही के कारण मुझे बे-अन्त कहा है परन्तु वत्सो, मैं व्यापकता की दृष्टी से बे-अन्त नहीं हूँ | जैसे मनुष्यात्माएं अनु अथवा बिन्दु के समान सूक्ष्म है, वैसे भी मैं भी उनकी तरह एक ज्योति कण ही हूँ परन्तु सभी आत्माओं से ज्ञान, शान्ति तथा गुणों में अधिक महान होने के कारण मुझे परम आत्मा (परमात्मा) कहा गया है |

वत्सो, अपने परमपिता (परमात्मा) को सर्वव्यापी मानना अर्थात सर्प, मगरमच्छ, कुत्ते, बिल्ले, पत्थर, ठिक्कर, कण-कण आदि में मानना गोया उनकी ग्लानि करना और महान पाप करना है | वास्तव में इसी भ्रष्ट मान्यता के कारण संसार में भ्रष्टाचार फैला है |

अच्छी धारणा


अच्छी धारणा
·          जब आपकी धारणा अच्छी होती है तब स्वत: ही सेवा का उमंग-उत्साह बना रहता है। और आपकी धारणा तब अच्छी होती है जब आप योग से शक्तियों को प्राप्त करते हो। यह केवल ज्ञान सुनाने की बात नहीं है लेकिन ज्ञान स्वरूप होकर चलना है और सेवा की अन्दर से भावना रखनी है।
·          दूसरों को क्या करना चाहिए यह कहना तो बहुत आसान है लेकिन हमें क्या करना चाहिए यह सुनना बहुत मुश्किल है।
·          आत्म अभिमानी स्थिति से स्वयं को समझने की शक्ति मिलती रहती है। बाबा के साथ गहरे सम्बन्ध से अपने आपको परिवर्तन करने की शक्ति प्राप्त होती है। समय की स्मृति से अभी-अभी परिवर्तन करने की शक्ति प्राप्त होती है।
·          जब आप अपने आपको अच्छी तरह से समझते हो तभी आप अन्दर से खुश रह सकते हो। जब आप अपने आपको अच्छी तरह से समझते हो तभी आप श्रीमत का एक्यूरेट पालन कर सकते हो। अगर तुम क्यूं और क्या करते रहते हो इसका मतलब ड्रामा को अच्छी तरह से समझा नहीं है।

Murli of August 30, 2012


30-8-2012:

Essence: Sweet children, you know this unlimited play in the form of a drama. You are hero actors. The Father has now come and awakened you.

Question: What are the Father’s orders that you obey and are thereby saved from the suffering of vices?

Answer: The Father’s orders are: First of all sit in a furnace (bhatthi) for seven days. When a soul, suffering from the five vices comes to you, tell him: You need to give seven days of your time. Give a minimum of seven days so that we can explain to you how the illness of the five vices can be removed. Tell those who ask too many questions: First of all do the seven days’ course.

Song: Salutations to Shiva.

To the sweetest, beloved, long-lost and now-found children, love, remembrance and good morning from the Mother, the Father, BapDada. The spiritual Father says namaste to the spiritual children.

Essence for dharna: 
1. Don’t have doubts about anything. Watch the drama as a detached observer. Never spoil your register.
2. In order to reach your karmateet stage, make full effort to stay in remembrance. Remember the Father with an honest heart. Check the temperature of your stage by yourself.


Blessing: May you experience the happiness of success by using every treasure in a worthwhile way at every second and become an embodiment of success.

The special way to become an embodiment of success is to use your every second, every breath and every treasure in a worthwhile way. If you wish to experience all types of success in your thoughts, words, deeds, relationships and connections, then continue to use everything in a worthwhile way and do not let anything go to waste. Whether you use something in a worthwhile way for yourself or for other souls, you will automatically continue to experience happiness from using it in a worthwhile way, because to use something in a worthwhile way means to achieve success at present and to accumulate for the future.

Slogan: When nothing attracts you, even in your thoughts, you would then be said to be close to perfection.
30-8-2012:

मुरली
 सार:- ''मीठे बच्चे - तुम इस बेहद लीला रूपी नाटक को जानते हो, तुम हो हीरो पार्टधारी तुम्हें बाप ने आकर अभी जागृत किया है''

प्रश्न: बाप का फरमान कौन सा है? जिसे पालन करने से विकारों की पीड़ा से बच सकते हैं?

उत्तर: बाप का फरमान है - पहले 7 रोज़ भट्ठी में बैठो। तुम बच्चों के पास जब कोई आत्मा 5 विकारों से पीड़ित आती है तो उसे बोलो कि 7 रोज़ का टाइम चाहिए। कम से कम 7 रोज़ दो तो तुम्हेंहम समझायें कि 5 विकारों की बीमारी कैसे दूर हो सकती है। जास्ती प्रश्न-उत्तर करने वालों को तुम बोल सकते हो कि पहले 7 रोज़ का कोर्स करो।

गीत:-
 ओम् नमो शिवाए....

धारणा के लिए मुख्य सार: 
1)
 किसी भी बात में संशय नहीं उठाना है। ड्रामा को साक्षी हो देखना है। कभी भी अपना रजिस्टर खराब नहीं करना है। 
2)
 कर्मातीत अवस्था तक पहुँचने के लिए याद में रहने का पूरा पुरूषार्थ करना है। सच्चे दिल से बाप को याद करना है। अपनी स्थिति का टैम्प्रेचर अपने आप देखना है।

वरदान: हर सेकण्ड, हर खजाने को सफल कर सफलता की खुशी अनुभव करने वाले सफलतामूर्त भव

सफलता
 मूर्त बनने का विशेष साधन है-हर सेकण्ड को, हर श्वांस को, हर खजाने को सफल करना। यदि संकल्प, बोल, कर्म, सम्बन्ध-सम्पर्क में सर्व प्रकार की सफलता का अनुभव करना चाहते होतो सफल करते जाओ, व्यर्थ नहीं जाये। चाहे स्व के प्रति सफल करो, चाहे और आत्माओं के प्रति सफल करो तो आटोमेटिकली सफलता की खुशी अनुभव करते रहेंगे क्योंकि सफल करना अर्थात्वर्तमान में सफलता प्राप्त करना और भविष्य के लिए जमा करना।

स्लोगन: जब संकल्प में भी कोई आकर्षण आकर्षित  करे तब कहेंगे सम्पूर्णता की समीपता।

Song:  Om namah Shivay ओम् नमो शिवाए..... Salutations to Shiva….

LinkWithin

Related Posts Plugin for WordPress, Blogger...