Om Shanti
Om Shanti
कम बोलो, धीरे बोलो, मीठा बोलो            सोच के बोलो, समझ के बोलो, सत्य बोलो            स्वमान में रहो, सम्मान दो             निमित्त बनो, निर्मान बनो, निर्मल बोलो             निराकारी, निर्विकारी, निरहंकारी बनो      शुभ सोचो, शुभ बोलो, शुभ करो, शुभ संकल्प रखो          न दुःख दो , न दुःख लो          शुक्रिया बाबा शुक्रिया, आपका लाख लाख पद्मगुना शुक्रिया !!! 

Vices to Virtues: 81: संस्कार परिवर्तन

Vices to Virtues: 81: संस्कार परिवर्तन






Bapdada has told us to cremate our old sanskars. (Sanskar ka sanskar karo) Not just to suppress them, but to completely burn them, so there is no trace or progeny left. Check and change now. Have volcanic yoga (Jwala swaroop) Let us work on one each day.


बापदादा ने कहा है के ज्वाला  मुखी  अग्नि  स्वरुप  योग  की  शक्ति  से  संस्कारों  का संस्कार करो ; सिर्फ मारना नहींलेकिन  जलाकर नाम रूप ख़त्म कर दो.... चेक और चेन्ज करना ... ज्वाला योग से अवगुण और पुराने संस्कार जला देना ...हररोज़ एक लेंगे और जला देंगे...


पुराने वा अवगुणो का अग्नि ....    पुराने वा अवगुणो का अग्नि संस्कार  # ८१   ........... बात को छिपाना  बात को बदल देना  ..........बदलकर... मैं सत्य, सच, स्वच्छ, सॉफ, स्पष्ट आत्मा,  नर से नारायण बननेवाला, पक्का सोना,  सिरताज तख्त धारी हूँ.......



cremate our old sanskars  cremate our old sanskars  # 81....hiding the truth, distorting the truth.......... replace them by I, the truthful, honest, clean and clear hearted transparent soul, transform from an ordinary human being to Narayan;  I am pure gold, crowned and seated on the throne......



Poorane va avguno ka agni sanskar... # 81  .......... baat ko chhipaana baat ko badal dena  ......badalkar.... mai satya,sach, swachch, saaf, spasht atma  nar se narayan ban ne wala, pakka sona,  sirtaaj takhtdhaari hun.......


Yog Commentary



पुराने वा अवगुणो का अग्नि ....    पुराने वा अवगुणो का अग्नि संस्कार  # ८१   ........... बात को छिपाना,   बात को बदल देना  ..........बदलकर... मैं सत्य, सच, स्वच्छ, सॉफ, स्पष्ट आत्मा,  नर से नारायण बननेवाला, पक्का सोना,  सिरताज तख्त धारी हूँ.......


मैं आत्मा परमधाम शान्तिधाम शिवालय में हूँ ....... शिवबाबा के साथ हूँ ..... समीप हूँ .... समान हूँ ..... सम्मुख हूँ .....  सेफ हूँ ..... बाप की छत्रछाया में हूँ .....अष्ट इष्ट महान सर्व श्रेष्ठ हूँ ...... मैं आत्मा मास्टर ज्ञानसूर्य हूँ .... मास्टर रचयिता हूँ ..... मास्टर महाकाल हूँ ..... मास्टर सर्व शक्तिवान हूँ ..... शिव शक्ति कमबाइनड  हूँ  ........ अकालतक्खनशीन  हूँ ....अकालमूर्त हूँ ..... अचल अडोल अंगद एकरस एकटिक एकाग्र स्थिरियम अथक और बीजरूप  हूँ ........ शक्तिमूर्त ..... संहारनीमूर्त ...... अलंकारीमूर्त ..... कल्याणीमूर्त हूँ ......शक्ति सेना हूँ ..... शक्तिदल हूँ ...... सर्वशक्तिमान हूँ ......  रुहे गुलाब .... जलतीज्वाला .... ज्वालामुखी ....  ज्वालास्वरूप .... ज्वालाअग्नि हूँ .... स्पेशल बात को छिपाना,   बात को बदल देना .................अवगुणों का आसुरी संस्कार का अग्नि संस्कार कर रही हूँ ........ जला रही हूँ ...... भस्म कर रही हूँ ......  मैं आत्मा महारथी महावीर ........ बात को छिपाना,   बात को बदल देना ........................ के  मायावी संस्कार पर विजयी रूहानी सेनानी हूँ .......... मैं सत्य, सच, स्वच्छ, सॉफ, स्पष्ट आत्मा,  नर से नारायण बननेवाला, पक्का सोना,  सिरताज तख्त धारी हूँ....  मैं देही -अभिमानी ..... आत्म-अभिमानी..... रूहानी अभिमानी .....परमात्म अभिमानी..... परमात्म ज्ञानी ..... परमात्म भाग्यवान..... सर्वगुण सम्पन्न  ..... सोला  कला सम्पूर्ण ..... सम्पूर्ण निर्विकारी .....मर्यादा पुरुषोत्तम  ...... डबल अहिंसक  हूँ ..... डबल ताजधारी ..... विष्व  का मालिक हूँ ..... मैं आत्मा ताजधारी ..... तख़्तधारी ..... तिलकधारी ..... दिलतक्खनशीन  ..... डबललाइट ..... सूर्यवंशी शूरवीर ....... महाबली महाबलवान ..... बाहुबलि पहलवान ....... अष्ट भुजाधारी अष्ट शक्तिधारी   अस्त्र शस्त्रधारी शिवमई शक्ति हूँ ...




cremate our old sanskars  cremate our old sanskars  # 81....hiding the truth, distorting the truth.......... replace them by I, the truthful, honest, clean and clear hearted transparent soul, transform from an ordinary human being to Narayan;  I am pure gold, crowned and seated on the throne......


I am a soul...I reside in the Incorporeal world...the land of peace...Shivalaya...I am with the Father...I am close to the Father...I am equal to the Father...I am sitting personally in front of the Father...safe...in the canopy of protection of the Father...I am the eight armed deity...a  special deity...I am great and elevated...I, the soul am the master sun of knowledge...a master creator...master lord of death...master almighty authority... Shivshakti combined...immortal image...seated on an immortal throne...immovable, unshakable Angad, stable in one stage, in a constant stage, with full concentration....steady, tireless and a seed...the embodiment of power...the image of a destroyer...an embodiment of ornaments...the image of a bestower...the Shakti Army...the Shakti  troop...an almighty authority...the spiritual rose...a blaze...a volcano...an embodiment of a blaze...a fiery blaze...I am cremating the sanskar of  hiding the truth, distorting the truth...........I am burning them...I am turning them into ashes...I, the soul am a maharathi...a mahavir...I am the victorious spiritual soldier that is conquering the vice of ... hiding the truth, distorting the truth.......... I, the truthful, honest, clean and clear hearted transparent soul, transform from an ordinary human being to Narayan;  I am pure gold, crowned and seated on the throne.................I , the soul, am soul conscious, conscious of the soul, spiritually conscious, conscious of the Supreme Soul, have knowledge of the Supreme Soul, am fortunate for knowing the Supreme Soul.....I am full of all virtues, 16 celestial degrees full, completely vice less, the most elevated human being following the code of conduct, doubly non-violent, with double crown...I am the master of the world, seated on a throne, anointed with a tilak, seated on Baba’s heart throne, double light, belonging to the sun dynasty, a valiant warrior, an  extremely powerful and  an extremely strong wrestler with very strong arms...eight arms, eight powers, weapons and armaments, I am the Shakti merged in Shiv...



Poorane va avguno ka agni sanskar... # 81  .......... baat ko chhipaana baat ko badal dena  ......badalkar.... mai satya,sach, swachch, saaf, spasht atma  nar se narayan ban ne wala, pakka sona,  sirtaaj takhtdhaari hun.......


mai atma paramdham shantidham, shivalay men hun...shivbaba ke saath hun...sameep hun...samaan hun...sammukh hun...safe hun...baap ki chhatra chaaya men hun...asht, isht, mahaan sarv shreshth hun...mai atma master gyan surya hun...master rachyita hun...master mahakaal hun...master sarv shakti vaan hun...shiv shakti combined hun...akaal takht nasheen hun...akaal moort hun...achal adol angad ekras ektik ekagr sthiriom athak aur beej roop hun...shaktimoort hun...sanharinimoort hun...alankarimoort hun...kalyani moort hun...shakti sena hun...shakti dal hun...sarvshaktimaan hun...roohe gulab...jalti jwala...jwala mukhi...jwala swaroop...jwala agni hun... .......... baat ko chhipaana baat ko badal dena  ...............avguno ka asuri sanskar kar rahi hun...jala rahi hun..bhasm kar rahi hun...mai atma, maharathi mahavir .......... baat ko chhipaana baat ko badal dena  .................ke mayavi sanskar par vijayi ruhani senani hun... mai satya,sach, swachch, saaf, spasht atma  nar se narayan ban ne wala, pakka sona,  sirtaaj takhtdhaari hun......... mai dehi abhimaani...atm abhimaani...ruhani abhimaani...Parmatm abhimaani...parmatm gyaani...parmatm bhagyvaan...sarvagunn sampann...sola kala sampoorn...sampoorn nirvikari...maryada purushottam...double ahinsak hun...double tajdhaari vishv ka malik hun...mai atma taj dhaari...takht dhaari...tilak dhaari...diltakhtnasheen...double light...soorya vanshi shoorvir...mahabali mahabalwaan...bahubali pahalwaan...asht bhujaadhaari...asht shakti dhaari...astr shastr dhaari shivmai shakti hun...


03-05-15 प्रात:मुरली ओम् शान्ति “अव्यक्त-बापदादा” रिवाइज:28-11-79 मधुबन


03-05-15    प्रात:मुरली    ओम् शान्ति  अव्यक्त-बापदादा”   रिवाइज:28-11-79   मधुबन
 

 

प्रवृत्ति में रहते भी निवृत्ति में कैसे रहें?

आज बापदादा अपने कल्प पहले वाले सिकीलधे कोटों में से कोई, बाप को जानने और वर्सा पाने वाले किसी विशेष ग्रुप को देख रहे थे। कौन-सा ग्रुप होगा? आज विशेष प्रवृत्ति में रहने वाले बच्चों को देख रहे थे। चारों ओर बच्चों के प्रवृत्ति के स्थान भी देखे। व्यवहार के स्थान भी देखे। परिवार भी देखे और आज की तमोगुणी प्रकृति और परिस्थितियों का प्रभाव क्या-क्या पड़ता है,, राज्य का प्रभाव क्या-क्या पड़ता है यह हाल-चाल देख रहे थे। देखते-देखते कई बच्चों की कमाल भी देखी कि कैसे प्रवृत्ति में रहते हुए भी निव्रृत रहते हैं। प्रवृत्ति और निवृत्ति दोनों का बैलेन्स रखने वाले बहुत अच्छा श्रेष्ठ पार्ट बजा रहे हैं।। सदा बाप के साथी और साक्षी हो बहुत अच्छा पार्ट बजाते, विश्व के आगे प्रत्यक्ष प्रमाण बने हुए हैं। सदा बाप की याद की छत्रछाया के अन्दर किसी भी प्रकार की माया के वार से व माया के अनेक आकर्षण से सदा सेफ रहने वाले हैं।

ऐसे विश्व से न्यारे और निराले बच्चों को देखकर बाप भी बच्चों के गुण गाते हैं। कई ऐसे बच्चे देखे जो रहते प्रवृत्ति के स्थान पर हैं। लेकिन सच्चे बच्चे होने के कारण साहेब उन पर सदा राजी रहते हैं। न्यारे और प्यारे के राज को जानने के कारण सदा स्वयं से भी राजी रहते हैं। प्रवृत्ति को भी राजी रखते हैं। साथ-साथ बाप-दादा भी सदैव उन पर राजी रहते हैं। ऐसे स्वयं को और सर्व को राजी रखने वाले राज युक्त बच्चों को कभी भी अपने प्रति व अन्य किसी के प्रति किसी को काजी बनाने की जरूरत नहीं रहती क्योकि केस ही नहीं जो काजी बनाना पड़े। कई बार सुना है ना मिया बीबी राजी तो क्या करेगा काजी।अपने ही संस्कारों के केस अपने पास बहुत होते हैं, जिस पर अपने अन्दर ही बहस चलती रहती है। राइट है या रांग है, होना चाहिए या नहीं होना चाहिए, कहाँ तक होना चाहिए, यह बहस चलती रहती है। और जब अपने आप फैंसला नहीं कर पाते तो दूसरों को काजी बनाना पड़ता है। फिर किसी की छोटी बात होती है, किसी की लम्बी होती है। अगर बाप और आप दोनों मिलकर फैंसला कर दो तो सेकेण्ड में समाप्त हो जाए और किसी को काजी या वकील या जज बनाने की जरूरत ही नहीं।

प्रवृत्ति का कायदा होता है कि अगर कोई भी बात प्रवृत्ति में होती है तो माँ-बाप बच्चों तक भी पहुँचने नहीं देते हैं! वहाँ ही स्पष्ट कर समा देते हैं अर्थात् समाप्त कर देते हैं। अगर तीसरे तक बात गई तो फैलेगी जरूर। और जितना कोई बात फैलती है उतना बढ़ती है। जैसे स्थूल आग जितनी फैलेगी उतना नुकसान करेगी। यह भी छोटी-छोटी बातें भिन्न-भिन्न प्रकार के विकारों की आग है। आग को वहाँ ही बुझाया जाता है, फैलाया नहीं जाता। प्रवृत्ति में बाप और आप के सिवाए तीसरी समीप आत्मा अर्थात् परिवार की आत्माओं में भी बात फैलनी नहीं चाहिए। मियाँ बीबी राजी हो जाओ। नाराज अर्थात् राज को न जानने के बराबर। कोई-न-कोई ज्ञान का राज मिस करते हो तब नाराज होते हो। चाहे स्वयं से या दूसरों से। तो वकील करने से वही छोटी बात बड़ा केस बन जाती है इसलिए तीसरे को सुनाना अर्थात् घर की बात को बाहर निकालना। जैसे आजकल की दुनिया में जो बड़े केस होते हैं वह अखबार तक फैल जाते हैं तो यहाँ भी ब्राह्मण परिवार के अखबार में पड़ जाते हैं। तो क्यों नहीं आपस में फैंसला कर लो। बाप जाने और आप जानें तीसरा कोई नहीं। कोई-कोई बच्चों का संकल्प पहुँचता है कि मियाँ बीबी तो ठीक लेकिन मियाँ निराकार और बीबी साकार तो मेल कम होता है इसलिए कभी मिलन होता है, कभी नहीं होता है - कभी रूह-रूहान पहुँचती है कभी नहीं पहुँचती अर्थात् रेसपान्स नहीं मिलता है इसलिए काजी करना पड़ता है। लेकिन मियाँ ऐसा मिला है जो बहुरूपी है। जो रूप आप चाहो तो एक सेकेण्ड में जी हजूर कह हाजर हो सकते हैं लेकिन आप भी बाप समान बहुरूपी बनो।

बाप तो एक सेकेण्ड में आप को उड़ाकर वतन में ले जायेंगे, बाप वतन से आकार में आते हैं, आप साकार से आकार में आओ। मिलने के स्थान पर तो पहुँचो। स्थान भी तो ऐसा बढ़िया चाहिए ना! सूक्ष्म वतन आकारी वतन मिलने का स्थान है। समय भी फिक्स है, अपायन्टमेन्ट भी है, स्थान भी फिक्स है, फिर क्यों नहीं मिलन होता? सिर्फ गलती क्या करते हो कि मिट्टी के साथ वहाँ आना चाहते हो। यह देह मिट्टी है। जब मिट्टी का काम करना है तब करो। लेकिन मिलने के समय इस देह के भान को छोड़ना पड़े। जो बाप की ड्रेस वह आपकी ड्रेस होनी चाहिए। समान होना चाहिए ना! जैसे बाप निराकार से आकारी वस्त्र धारण करते हैं। आकारी और निराकारी बाप-दादा बन जाते हैं - आप भी आकारी फरिश्ता ड्रेस पहन कर आओ। चमकीली ड्रेस पहन कर आओ तब मिलन होगा। ड्रेस पहनना नहीं आता है क्या? ड्रेस पहनो और पहुँच जाओ, यह ऐसी ड्रेस है जो माया के वाटर या फायर प्रूफ है। इस पुरानी दुनिया के वृत्ति और वायब्रेशन प्रूफ है। इतनी बढ़िया ड्रेस आपको दी है फिर वह अपायन्टमेन्ट के टाइम पर भी नहीं पहनते। पुरानी ड्रेस से ज्यादा प्रीत है क्या? जब दोनों समान चमकीली ड्रेस वाले होंगे और चमकीले वतन में होंगे तब अच्छा लगेगा। एक पुरानी ड्रेस वाला और एक चमकीली ड्रेस वाला, जोड़ी मिल नहीं सकती, इसलिए अनुभव नहीं होता। पुराने वायब्रेशन्स इन्टरफियर कर देते हैं इसलिए आपसी रूह-रूहान का रेसपान्स नहीं मिलता है। क्लीयर समझ में नहीं आता इसलिए औरों का अल्पकाल का सहारा लेना पड़ता है।

वैसे यह मियाँ बीबी का नाता इतना स्नेही और समीप का है जो इशारे से भी समझ लें। इशारे से भी सूक्ष्म संकल्प में ही समझ लें। यह ऐसा प्रीत का नाता है। फिर बीच में तीसरे को क्यों डालते हो? तीसरे को डालना अर्थात् अपनी एनर्जी और टाइम को वेस्ट करना। हाँ, यह रूह-रूहान करो कि मेरा मिलन कैसे हुआ, मेरी रूह-रूहान क्या हुई, हम-शरीक सहयोगी बन आपस में रूह-रूहान करो। काजी बना के रूह-रूहान नहीं करो। केस लेकर रूह-रूहान नहीं करो - तो काजी को छोड़ दो और राजी हो जाओ। जब पसन्द कर लिया फिर बीच में किसी को क्यों डालते हो? बीच में डालते हो तो बीच भँवर में आ जाते हो। बचाने की मेहनत फिर भी मियाँ को ही करनी पड़ती है इसलिए विश्व-कल्याण का कार्य रह जाता है। फिर पूछते हैं विनाश कब होगा? अब बीबियाँ तैयार ही नहीं तो विनाश कैसे करें। समझा, विनाश क्यों नहीं हो रहा है? ड्रेस का परिवर्तन करने नहीं आता तो विश्व को कैसे परिवर्तन करेंगे। अच्छा, अब प्रवृत्ति वालों का हाल-चाल फिर सुनायेंगे। आज तो आप की प्रवृत्ति का हाल सुनाया।

ऐसे सदा राज युक्त, युक्तियुक्त, सदा समीप सम्बन्ध में रहने वाले, सदा राजी रहने वाले और सर्व को राजी रखने वाले, सदा मिलन मनाने वाले, ऐसे सदा बाप के साथी और साक्षी बच्चों को बाप-दादा का याद-प्यार और नमस्ते।

टीचर्स के प्रति अव्यक्त महावाक्य:-

टीचर्स अर्थात् बाप समान सर्वश्रेष्ठ आत्मायें। टीचर्स को हर वर्ष कोई नया प्लैन बनाना चाहिए। सेवा के प्लैन तो स्टूडेन्ट्स भी बनाते हैं। लेकिन टीचर्स को विशेष क्या करना है? अब ऐसा अपना संगठन बनाओ जो सबके मुख से यह निकले कि यह अनेक होते भी एक हैं। जैसे यहाँ दीदी-दादी दो हैं लेकिन कहते हैं दोनों एक हैं तो यह प्रभाव पड़ता है ना। जब ये दो होते हुए भी एक-समान एक दूसरे को रिगार्ड देते, दो होते हुए एक दिखा रही हैं तो आप अनेक होते हुए एक का प्रमाण दे सकते हो। जैसे कहते हैं कि सब की वाणी एक ही होती है, जो एक बोलती वही सब बोलते हैं, ड्रैस भी एक जैसी, वाणी सबकी एक ही ज्ञान के पॉइन्ट्स की होती, भले सुनाने का ढंग अलग हो, सार एक ही होता है। वैसे ऐसा ग्रुप बनाओ जो सब कहें यह अनेक नहीं हैं, एक हैं। यही विशेषता है ना। तो एक्जैम्पल कोई निमित्त बनें जिसको फिर सब फालो करेंगे। इसमें जो ओटे सो अर्जुन। तो कौन अर्जुन बनेगा? जो अर्जुन बनेंगे उसे फर्स्ट प्राइज मिलेगी। सिर्फ एक बात का ध्यान देना पड़ेगा। कौन-सी बात? क्या करना पड़ेगा? सिर्फ एक दूसरे को सहयोग दे, विशेषता देखते हुए, कमजोरियों को न देखना, न सुनना, यह अभ्यास पक्का करना पड़ेगा। देखते हुए भी कमजोरी को समाकर सहयोग देते रहें। तिरस्कार नहीं करें लेकिन तरस की भावना रखें। जैसे दु:खी आत्माओं के ऊपर रहमदिल बनते हो वैसे कमजोरियों के ऊपर भी रहमदिल बनो। अगर ऐसे रहमदिल बन गये तो क्या हो जायेगा? अनेक होते हुए भी एक बन जायेंगे। वैसे भी लौकिक में देखो - जो समझदार परिवार होते हैं, स्नेही परिवार होते हैं वह क्या करते हैं, एक दूसरे की कमजोरी की बात समाकर, एक-दूसरे के सहयोगी बनकर बाहर अपना नाम बाला करते हैं। अगर कोई परिवार में गरीब होता है तो उसको मदद देकर के भरपूर कर देते हैं। यह भी परिवार है। अगर कोई संस्कार के वश हैं, तो क्या करना चाहिए। सहयोग देकर, हिम्मत बढ़ाकर के हुल्लास में लाते हुए उसको अपना साथी बनाना चाहिए फिर देखो अनेक होते भी एक हो जायेंगे। यह करना मुश्किल है क्या? जब वरदानी मूर्त हो तो वरदानी कभी किसी की कमजोरी नहीं देखते। तो क्या करेंगे? ऐसा कोई आत्मिक बाम लगाके दिखाओ। टीचर्स का कर्तव्य ही यह है। जैसे बाप कमजोरी दिल पर नहीं रखते लेकिन दिलाराम बनकर दिल को आराम देते हैं तो टीचर्स अर्थात बाप समान। किसी की कमजोरी तो देखो ही नहीं। दिल पर धारण नहीं करो लेकिन हरेक की दिल को दिलाराम समान आराम दो। तो सब आपके गुणगान करेंगे। साथी हों चाहे प्रजा हो, हर आत्मा के मुख से दुआयें निकलें। आपके लिए आशीर्वाद निकले कि यह सदा स्नेही और सहयोगी आत्मा है, यह बाप-समान रहमदिल, दिलाराम की बच्ची दिलाराम है, तब कहेंगे योग्य टीचर। अगर टीचर ही कमी देखें तो स्टूडेन्ट और टीचर में अन्तर ही क्या हुआ? टीचर तो बाप के गद्दी नशीन हैं। साथ में बाप की गद्दी पर विराजमान हो ना। सबसे समीप तो साथी ही बैठेंगे ना। टीचर अर्थात् गद्दी-नशीन। तो ऐसी कमाल करके दिखाओ। समझा टीचर किसको कहते हैं? इसमें कोई भी प्राईज ले सकता है। टीचर के मुख से कभी भी किसी की कमजोरी वर्णन नही होनी चाहिए, विशेषता ही वर्णन हो। टीचर का अर्थ ही है बाप-समान हिम्मतहीन की लाठी बनने वाली। समझा, टीचर किसको कहते हैं? विस्तार तो अच्छा बना रही हो। अब संगठन का सार बनाना है।

पार्टियों से:-

बापदादा बच्चों का कौन-सा स्वरूप सदा देखते हैं? बाप बच्चों का सदा सम्पन्न, सम्पूर्ण स्वरूप ही देखते हैं क्योंकि बाप जानते हैं कि भले आज जरा हलचल में हैं लेकिन अचल होना ही है। थे और वही पार्ट बजाकर सम्पन्न बनना ही है, बीच की हलचल है, न थी, न रहेगी। यह मध्यकाल की बात है इसलिए बाप सदा हर बच्चे को श्रेष्ठ रूप में देखते हैं। तो बच्चों को क्या करना चाहिए? बच्चों को भी अपना सदा श्रेष्ठ रूप ही दिखाई दे। फिर कभी भी नीचे आयेंगे ही नहीं। नीचे तो कितना जन्म रहे हो। 63 जन्म उतरने का ही अनुभव किया। अब तो उतरते-उतरते थक गये हो ना कि अभी भी टेस्ट करनी है। अब चढ़ना ही चढ़ना है। उतरना समाप्त हुआ सिर्फ संगमयुग ही चढ़ने का युग है फिर तो उतरना शुरू हो जायेगा। अगर इतने थोड़े से समय में भी उतरना चढ़ना होता रहेगा तो फिर कब चढ़ेंगे। जैसे औरों को कहते हो अब नहीं तो कभी नहीं। ऐसे अपने को भी यही स्मृति दिलानी है। अब नहीं चढ़े तो उतरना शुरू हो जायेगा। तो सदा चढ़ती कला। इसमें बहुत मजा आयेगा। इस जीवन में अप्राप्त कोई वस्तु नजर नहीं आयेगी। भविष्य जीवन में तो अप्राप्ति और प्राप्ति के जीवन का पता ही नहीं होगा, अभी दोनों का पता है तो मजा अभी है ना। ब्राह्मण बनना अर्थात् चाहिए-चाहिए समाप्त। जब बाप ने सर्व खजाने दे दिये, चाबी भी दे दी फिर मांगते क्यों हो? क्या कुछ छिपाकर रख लिया है जो कहते हो चाहिए! बाप ने बिना मांगे सब दे दिया। आपका मांगने का रूप भी बाप को अच्छा नहीं लगता। विश्व के मालिक के बालक मांगें तो अच्छा लगेगा? जो आप को जरूरत है वह सब दे ही दिया। तो अब क्या करेंगे। इसी नशे में रहो कि हम विश्व के मालिक के बालक हैं तो मांगना समाप्त हो जायेगा।

अब मायाजीत का झण्डा चारों ओर बुलन्द करो, जब यह झण्डा बुलन्द हो जायेगा तो सब झण्डे नीचे झुक जायेंगे। अभी रस्सी खींच रहे हो। जब झण्डा चढ़ जायेगा तो प्रत्यक्षता के फूलों की वर्षा होगी।

एक दो को सहयोगी बनाकर मायाजीत के वायब्रेशन्स फैलाओ, अब ऐसा किला मजबूत करो। इतना किला पक्का हो जो माया की हिम्मत ही न रहे। अगर किसी में आये भी तो उसे दूर से भगा दो।

 
वरदान:- संगमयुग की सर्व प्राप्तियों को स्मृति में रख चढ़ती कला का अनुभव करने वाले श्रेष्ठ प्रारब्धी भव !  

परमात्म मिलन वा परमात्म ज्ञान की विशेषता है-अविनाशी प्राप्तियां होना। ऐसे नहीं कि संगमयुग पुरुषार्थी जीवन है और सतयुगी प्रारब्धी जीवन है। संगमयुग की विशेषता है एक कदम उठाओ और हजार कदम प्रारब्ध में पाओ। तो सिर्फ पुरुषार्थी नहीं लेकिन श्रेष्ठ प्रारब्धी हैं-इस स्वरूप को सदा सामने रखो। प्रारब्ध को देखकर सहज ही चढ़ती कला का अनुभव करेंगे। पाना था सो पा लिया”-यह गीत गाओ तो घुटके और झुटके खाने से बच जायेंगे।

स्लोगन:- ब्राह्मणों का श्वांस हिम्मत है, जिससे कठिन से कठिन कार्य भी आसान हो जाता है। 

 

 

Synopsis of the Avyakt Murli of November 28, 1979 (May 03, 2015)


Synopsis November 28, 1979

How to remain free while living at home with your family.

(Pravritti men rehte nivritti men kaise rahen?)

The Father constantly sees the complete and perfect form (sampann sampoorn swaroop) in the children. The Lord is always pleased (raazi)  with the children who have honest hearts.


Being raazyukt and yuktiyukt:

1.   Those who know the secret of remaining loving and detached, are always happy with themselves and also keep their families happy. BapDada too is always happy (raazi) with them.

2.   Children who are raazyukt (who understand all secrets) and who constantly keep themselves and everyone else happy don't need to hire an advisor (kaazi) either for themselves or for others.

3.   Only you and the Father should know about anything that happens; it should not reach a third person even though that one may be close and even in the family. If you and the Father were to make a decision together, everything would be finished within a second and there would then be no need to have an advisor, a judge or a lawyer

4.   To become upset (naraaz) is like not knowing the secret (raaz). It is when you miss out on one or another secret of knowledge that you become upset, either with yourself or with others.

 Celebrate a meeting

1.   The Father can make you fly and take you with Him to the subtle region within a second. The Father comes from the incorporeal world into the subtle world; you too can come from the corporeal world to the subtle world. The subtle region, the angelic region, is the meeting place. The time for you is fixed; you've made the appointment; the venue is fixed; at the time of the meeting, you have to renounce the consciousness of your body and put on the same dress as the Father's. They have to be the same. From being incorporeal, the Father adopts an angelic costume —BapDada becomes the angelic and the incorporeal together. You too have to put on your angelic dress and come here. Only when you wear your shining dress will the meeting take place. This dress is waterproof and fireproof against any form of Maya. It has also been made proof against the attitudes and vibrations of this old world.

2.   This is such a relationship of love! This relationship should be so close and loving that you would be able to understand everything just through signals. Even more subtle than signals, you should be able to understand one another through your thoughts.

Service:

1.   To become a Brahmin means to finish all desires. Make one another co-operative and spread the vibrations of being a conqueror of Maya. Make your fortress so strong that Maya has no courage to come. If she does come to someone, chase her away from a distance.

2.   You must make such a group that everyone says that all of you are not many, but one (united). You have to co-operate with one another and see each other's specialities, and not see each other's weaknesses. Don't listen to them either. You will have to make this practice very firm. Whilst seeing everyone, accommodate the weaknesses of those souls and co-operate with them. You should not reject such souls, but have feelings of mercy for them. For those who are influenced by their sanskars, co-operate and encourage them. Increase their enthusiasm and make them your companions.

3.   You are images that grant blessings, you are such blessed souls that do not look at anyone's weaknesses. Demonstrate by dropping such an "atmic" (soul conscious) bomb. Don't look at anyone's weaknesses! Instead of taking their weaknesses into your heart, comfort everyone's heart in the same way as the Comforter of Hearts does. Blessings should constantly emerge from them of your being constantly a very loving and co-operative soul; one who is equal to the Father, the Comforter of Hearts, in comforting their hearts.






Blessing: May you receive the elevated reward and experience the ascending stage by keeping all the attainments of the confluence age in your awareness.


The speciality of a meeting with God and God's knowledge is to experience imperishable attainments. It is not that the confluence age is a life of making effort and the golden-aged life is the life of a reward. The speciality of the confluence age is that, when you take one step, you receive the reward of a thousand steps. So, it is not just an effort-making life, but a life of an elevated reward. Constantly keep this form in front of you. On seeing the reward, you will easily experience the ascending stage. Sing the song, "I have attained that which I wanted to attain" (paana tha so paa liya), and you will be protected from choking and nodding off.


Slogan: The breath of Brahmins is courage which makes even the most difficult (katthin) task easy.


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