Om Shanti
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कम बोलो, धीरे बोलो, मीठा बोलो            सोच के बोलो, समझ के बोलो, सत्य बोलो            स्वमान में रहो, सम्मान दो             निमित्त बनो, निर्मान बनो, निर्मल बोलो             निराकारी, निर्विकारी, निरहंकारी बनो      शुभ सोचो, शुभ बोलो, शुभ करो, शुभ संकल्प रखो          न दुःख दो , न दुःख लो          शुक्रिया बाबा शुक्रिया, आपका लाख लाख पद्मगुना शुक्रिया !!! 

राजयोग कोर्स


राजयोग कोर्स

राजयोग ज्ञान

``योग`` शब्द ही - मनुष्य को अलौकिकता की ओर प्रेरित करता है. आज विश्व में योग विद्या के अभाव के कारण ही बेचौनी, परेशानी व तनाव का प्रकोप बढ़ता जा रहा है. योग अत्यन्त प्राचीन प्रणाली है. भारत के प्राचीन योग की ख्याति समस्त विश्व तक पहुँची हुई है. इसलिए विश्व के अनेक प्राणियों में योगाभ्यास सीखने की आकांक्षा है

योग की प्रख्याति के कारण समयोपरान्त इसके विविध स्वरुप सामने आये. यद्यपि योग अभ्यास की विधि एक ही है, परन्तु आत्मा और परमात्मा की भिन्न-भिन्न व्याख्याओं के कारण मनुष्यों ने अनेक प्रकार के योगांे का प्रतिपादन किया. धीरे-धीरे योग अभ्यास मनुष्य के लिए कठिन होता गया और योग का स्थान हटयोग व योग आसनों ने लिया तथा आजकल मनुष्य योग को केवल शारीरिक स्वास्थ्य के लिए ही हितकर मानने लगा. यह सत्य उससे विस्मृत हो गया कि योग पूर्णतया आध्यात्मिक विद्या है.
योग विद्या लोप होने के साथ-साथ संसार से सत्य धर्म भी लोप होता गया और धर्म की ग्लानि की स्थिती आ पहुँची. संसार से वास्तविक धर्म व अध्यात्म समाप्त हो गया और मानवता का भविष्य पूर्णतया अंधकार मे नज़र आने लगा. हम सब कलियुग के अन्तिम चरण में पहॅुंच गये. तब योगेश्वर, ज्ञान-सागर परमात्मा ने स्वयं प्रजापिता ब्रह्मा के मुखारविन्द द्वारा सत्य व सम्पूर्ण योग सिखाया जिसे राजयोग की संज्ञा दी गई क्योंकि इससे मनुष्यात्मा पहले अपनी कर्मेन्द्रियों का राजा बन जाती है फिर उसे स्वर्ग का सम्पूर्ण सतोप्रधान राज्य प्राप्त हो जाता है. परमात्मा द्वारा सिखाये गये उस सहज राजयोग का ही इस पुस्तिका में उल्लेख है.

परमात्मा ने अति सहज योग सिखाया इसलिए इस योग में मन्त्र, प्राणायाम व आसनों की आवश्यकता नहीं पड़ती. इस योग का अभ्यास विश्व का हर प्राणी कर सकता है. यह राजयोग वास्त में मनुष्य को कर्म-कुशल बनाता है और कलियुग के इस दूषित वातावरण मे सन्तुलित जीवन जीने की कला भी सिखाता है. इस राजयोग के अभ्यास से अन्तरात्मा की गुप्त शक्तियाँ जागृत हो जाती है ओर उससे अनेक गुणांे, कलाओं व विशेषताओं का आविर्भाव होने लगता है. यह राजयोग मनुष्य के कुशल प्रशासन की कला भी सिखाता है और मन में बौठे विकारों के कीटाणुओं को नष्ट करने में सक्षम भी बनाता है. अगर जिज्ञासु इस राजयोग का एकाग्रता से अभ्यास करे और जीवन को अन्तर्मुखी बनाकर, ताये गये नियमों का पालन करे तो उस जीवन मे अत्याधिक परमानन्द व जीवन के सच्चे सुख की अनुभूति होगी.

अन्त में हम आशा करते है कि इस योग के अभ्यास से मनुष्यात्माएं अपने परमपिता से मिलन का अनुभव करेंगी और अभ्यास द्वारा इस योगाग्नि में अपने जन्म-जन्म के पापों को नष्ट करके एक स्वच्छ व निर्विकारी जीवन बनायेंगी तथा अन्त में कर्मातीत स्थिती को प्राप्त करेंगी.
अधिक जानकारी के लिए लिंक http://www.bkvarta.com/

बोध कथा - जहां अभिमान होता है वहां कभी ज्ञान नहीं होता ज्ञान को पाने के लिए इंसान को अपना अहंकार को छोडना पड़ता है।
इंसान को कभी अपनी शक्तियों और सम्पत्ति पर अभिमान नहीं करना चाहिए क्यों कि माया व्यक्ति को बुद्धिहीन कर देती है। और बुद्धिहीन लोग जीवन में कभी ज्ञान प्राप्त नहीं कर पाते।
एक बार एक जानश्रुति नाम का राजा था उसे अपनी सम्पत्ती पर बड़ा घमंड था एक रात कुछ हंस राजा के कमरे की छत पर आकर बात करने लगे एक हंस बोला कि राजा का तेज चारों ओर फैला है उससे बड़ा कोई नहीं तभी दूसरा हंस बोला कि तुम गाड़ी वाले रैक्क को नहीं जानते उनके तेज के सामने राजा का तेज कुछ भी नहीं है। राजा ने सुबह उठते ही रैक्क बाबा को ढूढ़कर लाने के लिए कहा राजा के सेवक बड़ी मुश्किल से रैक्क बाबा का पता लगाकर आए। तब राजा बहुत सा धन लेकर साधू के पास पहुंचा और साधू से कहने लगा कि ये सारा धन में आपके लिए लाया हूं कृपया कर इसे ग्रहण करें और आप जिस देवता की उपासना करते हे उसका उपदेश मुझे दीजिए साधू ने राजा को वापस भेज दिया।
अगले दिन राजा और ज्यादा धन और साथ में अपनी बेटी को लेकर साधू के पास पहुंचा और बोला हे श्रेष्ठ मुनि मैं यह सब आपके लिए लाया हूं आप इसे ग्रहण कर मुझे ब्रह्मज्ञान प्रदान करें तब साधू ने कहा कि हे मूर्ख राजा तू तेरी ये धन सम्पत्ति अपने पास रख ब्रह्मज्ञान कभी खरीदा नहीं जाता। राजा का अभिमान चूर चूर हो गया और उसे पछतावा होने लगा।कथा बताती है कि जहां अभिमान होता है वहां कभी ज्ञान नहीं होता ज्ञान को पाने के लिए इंसान को अपना अहंकार को छोडना पड़ता है।

बोध कथा- ध्या‍न और सेवा

बोध कथा- ध्या‍न और सेवा

एक बार ज्ञानेश्‍वर महाराज सुब‍‍ह-सुबह‍ नदी तट पर टहलने निकले। उनहोनें देखा कि एक लड़का नदी में गोते खा रहा है। नजदीक ही, एक सन्‍यासी ऑखें मूँदे बैठा था। ज्ञानेश्वर महाराज तुरंत नदी में कूदे, डूबते लड़के को बाहर निकाला और फिर सन्‍यासी को पुकारा। संन्‍यासी ने आँखें खोलीं तो ज्ञानेश्वर जी बोले- क्‍या आपका ध्‍यान लगता है? संन्‍यासी ने उत्तर दिया- ध्‍यान तो नही लगता, मन इधर-उधर भागता है। ज्ञानेश्वर जी ने फिर पूछा लड़का डूब रहा था, क्‍या आपको दिखाई नही दिया? उत्‍तर मिला- देखा तो था लेकिन मैं ध्‍यान कर रहा था। ज्ञानेश्वर समझाया- आप ध्‍यान में कैसे सफल हो सकते है? प्रभु ने आपको किसी का सेवा करने का मौका दिया था, और यही आपका कर्तव्‍य भी था। यदि आप पालन करते तो ध्‍यान में भी मन लगता। प्रभु की सृष्टि, प्रभु का बगीचा बिगड़ रहा है1 बगीचे का आनन्‍द लेना है, तो बगीचे का सँवरना सीखे।

यदि आपका पड़ोसी भूखा सो रहा है और आप पूजा पाठ करने में मस्‍त है, तो यह मत सोचिये कि आपके द्वारा शुभ कार्य हो रहा है क्‍योकि भूखा व्‍यक्ति उसी की छवि है, जिसे पूजा-पाठ करके आप प्रसन्‍न करना या रिझाना चाहते है। ईश्‍वर द्वारा सृजित किसी भी जीव व संरचना की उपेक्षा करके प्रभु भजन करने से प्रभु कभी प्रसन्‍न नही होगें।

ज्ञानामृत मई 2012


ज्ञानामृत डाउनलोड link may2012






































4-6-2012

राजयोग द्वारा अष्टशक्तियों की गुणों धारणा


राजयोग द्वारा अष्टशक्तियों की गुणों  की धारणा
बहुतसे लोग योग को एक-आध घण्टे की कोई क्रिया समझते हैं परन्तु वास्तव में योग तो जीवन के प्रति एक विशेष दृष्टिकोण का अथवा एक श्रेष्ठ जीवन-पद्धति का नाम है. राजयोगी का जीवन उसका आचार-व्यवहार,उसकी रीति-नीति भोगी से अलग और अलौकिक होती है. निस्सन्देह, राजयोग एक अभ्यास, पुरुषार्थ या क्रिया-विशेष का भी नाम है, परन्तु  यह एक ऐसी महान साधना या जीवन को दिव्य बनाने की कला है जिसके द्वारा मनुष्य स्वयं ही महान् बन जाता है और सारे विश्व को भी महान मना देता है.
राजयोगी घर-गृहस्थी का त्याग कर जंगलों के अन्दर कुटियाओ और गुफाओं में जाकर योग नही लगाता है, परन्तु वह समाज में रहकर पारिवारिक, सामाजिक और व्यावहारिक समस्याओं को बड़े ही सुचारु रुप से पार करता हुआ कमल फुल समान न्यारा और प्यारा जीवन व्यतीत करता है | उसकी स्थिती हर परिस्थिति में एकरस रहती है | जिस प्रकार बैटरी का सम्बन्ध बिजलीघर के साथ होने से बैटरी में फिर से शक्ति भर जाती है, उसी प्रकार सर्वशक्तिवान परमात्मा, जो सर्वशक्तियों का स्त्रोत  है, उससे सम्बन्ध जोडने से आत्मा में कई शक्तियों की प्राप्ति होती है, जो हर एक के जीवन में अति आवश्यक हैं | इन्हीं शक्तियों की कमी के कारण घर-घर में कलह-क्लेश बढ़ रहा है, जिसके फलस्वरुप, मानसिक तनाव बढ़ता जा रहा है और नई-नई बीमारियाँ भी उत्पन्न होती जा रही है | परन्तु राजयोग इन सब बातों को जड़ से समाप्त कर देता है |


1. सहन-शक्ति - जब हम यह निश्चय करते हैं कि हम शान्त स्वरुप आत्मा हैं, शान्ति के सागर परमपिता परमात्मा शिव की सन्तान है और शान्तिधाम के निवासी हैं तो हमारे द्वारा एैसा कोई कर्म नहीं होगा जिससे अशान्ति फैले | इस निश्चय से सबसे पहले हमारे अन्दर सहन करने की शक्ति आती है | कोई व्यक्ति अगर गालियाँ देता है तो भी मैं अपनी शान्ति का गुण क्यों नष्ट करुँ ? एक बच्चा किसी आम के पेड़ को पत्थर मारता है लेकिन वह पेड़ उसके जवाब में बच्चें को फल देता है, एक जड़ वस्तु में इतना गुण है तो चौतन्य में तो इससे भी ज्यादा होना चाहिए | लेकिन आज का मनुष्य र्इंट का जवाब पत्थर से देता है| राजयोगी इस सन्दर्भ रुप में सहनशील रहेगा क्योंकि वह जानता है कि दुसरा व्यक्ति अज्ञानता के कारण इस प्रकार का व्यवहार कर रहा है, परन्तु वह स्वयं तो ज्ञानवान है, अगर वह भी अज्ञानी के सदृश्य कर्म करे तो अज्ञानी और ज्ञानी में अन्तर ही क्या रहा ? वह स्वयं शान्तस्वरुप बन शान्ति का दान देगा, वौसे भी क्रोधी मनुष्य की बुध्दि में उस समय तो कोई बात बिठाई नही जा सकती है | तो राजयोगी सहनशक्ति को धारण कर उसकी बात मन में स्वीकार ही नहीं करता जो जवाब में कुछ कहना पड़े | वौसे भी एक पत्थर हथौड़ी और छेनी की ठोकरें सहन करने के बाद ही तो पूज्यनीय मूर्ति बनता है | महान आत्माओं ने अपनी महानता सहनशक्ति के आधार पर ही तो प्राप्त की है, तो मैं  शिवबाबा की सन्तान, ने अगर सहन कर भी लिया तो कौनसी बड़ी बात हूई ? कोई भी व्यक्ति 9 बार सहन करके 10 वी बार सहन नहीं कर सके तो भी उसे सहनशील नही कहेंगे | इसलिए मुझे सहन करते ही जाना है |

2. समाने की शक्ति - राजयोग द्वारा दूसरी शक्ति आती है - समाने की शक्ति | जौसे सागर अपने अन्दर सब कुछ समा लेता है, वौसे ही राजयोगी का हृदय सागर के समान विशाल, गहन और स्थिर होने के कारण वह मान-अपमान, स्तुति-निंदा, सुख-दु:ख, हार-जीत आदि बातों में समान रहकर सबकुछ अपने अन्दर समा लेता है | राजयोगी में ``वसुधैव कुटुम्बकम् `` की भावना रहती है, क्योकि वह समझता है कि सब परमात्मा के बच्चे मेरे भाई ही तो है | एक माँ अपने बच्चों की भूलें समा लेती हैं ना | परमात्मा भी हम सब आत्माओं  के परमपिता होने के कारण बुराईयाँ जानते हुए भी अन्दर समा लेते है |

अगर किसी को भूल बताना आवश्यक भी होगा तो राजयोगी ईश्र्या-द्वेष में आकर उसके समक्ष अथवा अन्य के आगे उसका वर्णन नही करेगा, परन्तु शुभ-चिन्तक बन समय और परिस्थिती को देखकर श्रेष्ठ भावना से समझायेगा | अगर भूल करने वला व्यक्ति नही समझता तो वह स्वयं की स्थिति नहीं बिगाडेगा लेकिन भूल करने वाले का भाग्य समझकर समा देगा वह आत्माओं के अवगणुणों को न देख कर केवल उनसे गुण ही धारण कर सदा हर्षित रहेगा |

3. परख शक्ति - राजयोगद्वारा परख शक्ति भी सुचारु रुप से आती है | जौसे एक जौहरी कसौटी के आधार से असली व नकली आभूषणों को परख लेता है, वौसे ही राजयोगी भी ज्ञान की कसोटी के आधार से सच्चे व झूठे व्यक्ति और परिस्थिति को परख सकता है | परमात्मा की याद से साक्षीपन की स्थिति बन जाती है जो हर व्यक्ति, वस्तु व परिस्थिति को स्पष्ट परखने में मदद करती है, अथवा परख शक्ति सहज ही धारण करा देती है |


4. निर्णय शक्ति - राजयोगी के मन-बुध्दि की तार परमात्मा के साथ जुटी होने के कारण वह तराजू की तरह उचित ओर अनुचित बात का शीघ्र ही निर्णय ले सकता है | उसको परमात्मा से कई प्रकार की प्रेरणायें भी प्राप्त होती हैं, बुध्दिमानों मे बुध्दिमान परमात्मा से बुध्दियोग लगाने से योग्य समय पर निर्णय लेना सहज आ जाता है अथवा निर्णय शक्ति का विकास होता है |

5. सामना करने की शक्ति - राजयोगी मनुष्य का सामना नहीं करता है लेकिन परिस्थितीतयों का सामना बड़ी सहज रीति से कर लेता है | सबके दु:खदायक परिस्थिती जो किसी के जीवन में आती है वह है अपने नजदीक के सम्बन्धी की मृत्यु | राजयोगी इस घटना का बगौर किसी दु:ख और वेदना के सामना करता है क्योंकि वह जानता हैकि आत्मा तो कभी भी मरती नहीं है, आत्मा एक अभिनेता की तरह इस सृष्टि रुपी रंगमंच पर आती है, शरीर तो केवल एक वस्त्र के समान है | किसी की मृत्यु पर राजयोगी यही सोचता है कि वह आत्मा एक शरीर रुपी वस्त्र छोड़ अपने कर्मो के अनुसार अन्य देह रुपी वस्त्र धारण करने के लिए गई है - दूसरा अभिनय करने | राजयोगी के सामने अगर सांसारिक समस्यायें तूफान का रुप धारण कर आएं तो भी वह कभी विचलित नहीं होता है. असने अपना साथी परमात्मा को बनाया है | जिसका साथी है भगवान उसको क्या रोकेगा आंधी और तूफान | परमात्मा का सहारा होने के कारण राजयोगी की आत्मा सदा दीपक के समान जगती रहती है तथा अन्य आत्माओं को ज्ञान प्रकाश देती रहती है | अत: परमात्मा की याद में राजयोगी आत्मा के अविनाशीपन, ड्रामा की ढाल तथा सर्वशक्तिवान् पिता की सन्तान होने के फलस्वरुप अपने शक्ति स्वरुप में स्थित होकर परिस्थिति का सामना सहज ही कर सकता है.

6. सहयोग शक्ति - आज सहयोग शक्ति की कमी के फलस्वरुप कितनी  समस्यायें खड़ी हो जाती है. मनुष्य अपने स्वार्थ के कारण सहयोग नही देना चाहता है. आज संसार में तीन प्रकार के मनुष्य पायें जाते है - एक है दानवी वृतीवाले, दानवी वृत्ती वाले सोचेंगे - ``मेरा तो मेरा पर तेरा भी मेरा`` | अर्थात् सहयोग देने के बजाय अन्य की वस्तू पर भी अधिकार रखेंगे | मानवी वृत्ती वाले सोचेंगे - ``मेरा सो मेरा, तेरा सो तेरा``, अर्थात् किसी से मतलब नही उनमें अगर स्वार्थ नहीं तो परोपकार की भावना भी नही परन्तु राजयोगी कहेगा -`` न कुछ मेरा न कुछ तेरा ``| यह सबकुछ परमात्मा का है | वह केवल अपनी चीज़ों से ही अनासक्त नही रहेगा परन्तू अन्य को भी अनासक्त रहने की प्रेरणा देगा| वह अपने तन-मन-धन को परमात्मा की अमानत समझकर ट्रस्टी होकर चलेगा और उसे ईश्वरीय कार्य में लगाकर सहयोगी बनता जायेगा | वह स्वयं कार्य करके अन्य को सिखायेगा | इसी प्रकार परमात्मा के कार्य में एक-एक के सहयोग की अंगुली मिलने से इस कलियुगी पहाड को उठाकर इसके स्थान पर सतयुग को लाना कोई बड़ी बात नही है. बस हिम्मत रखते जाईये और परमात्मा की मदद लेते जाईये | हिम्मते मर्दा तो मददे खुदा |

7. विस्तार को संकीर्ण करने की शक्ति  - जौसे कुछुआ अपने अंगो को जब चाहे सिकोड़ लेता है जब चाहे उन्हे  फैला लेता है, वौसे ही राजयोगी जब चाहे अपनी इच्छा अनुसार मालिक बन अपनी कर्मेन्द्रियों द्वारा कर्म करता है और जब चाहे विदेही एवं शान्त अवस्था में रह सकता है | इस प्रकार की विदेह अवस्था में रहकर वह अनेक बन्धनों से स्वयं को मुक्त अनुभव करता है |

8. समेटने की शक्ति - राजयोगी में समेटने की शक्ति भी बहुत सहज आ जाती है क्योंकि वह जानता है कि सृष्टि चक्र का अन्तिम समय होने के कारण उसके वापिस परमधाम घर जाने का समय आ चुका है जिस प्रकार एक मुसाफ़िर यात्रा पर जाते  समय आवश्यक वस्तुएं ही अपने साथ ले जाता है, उसी प्रकार राजयोगी अपनी आत्मा में दिव्य गुण, शक्तियां, श्रेष्ठ कर्म या श्रेष्ठ संस्कारों  का ही संग्रह करता है, क्योंकि वे ही आत्मा के सच्चे साथी बनकर उसके साथ जाते है | वह और सब ताफ से अपना हिसाब-किताब चुकता करता जाता है और एक ही लगन में रहता है कि उसे वापस परमधाम जाता है.

वह यह अवश्य ही ध्यान रखता होगा कि किस समय किस स्थिती का प्रयोग करना है सहनशक्ति धारण करने के समय अगर सामना करने कि शक्ति का प्रयोग किया तो और समस्या खड़ी हो सकती है. सामना करने के बदले गिर सहन कर लिया तो भी सफलता नहीं मिलेगी. इसलिए सबसे पहले आवश्यक है परख और निर्णयशक्ति.
राजयोगी आदि, मध्य और अन्त सोच-समझकर कदम आगे बढ़ाता है, उसमें सहनशक्ति होने के कारण र्धेयता का भी गुण है. धीरज का फल सदा मीठा होता है इसलिए राजयोगी हर कर्म में सदा सफलता का अनुभव करता है. वह सदा आत्मस्थिती में रहने कारण अन्तर्मुखी बन अपनी अवस्था भी जांच करता रहता है. इसके फलस्वरुप उसका हर संकल्प, बोल और कर्म श्रेष्ठ होता है उसकी वाणी में मिठास होती है इस अढ़ाई इंच की जीभ के लिए कहावत है कि, ``चाहे तो वह किसी को तखत पर बिठाये और चाहे तो किसी को तख्ते पर चढ़ाये.`` तलवार का घाव तो कुछ समय के बाद मिट जायेगा लेकिन जबान से किसी के हृदय पर किया हुआ घाव अमिट रह जाता है. राजयोगी हंस के समान सभी के गुण रुपी मोती ग्रहण करता है, अत: वह सदा हर्षित भी रहता है और हर परिस्थिती में स्थिर रहता है.

राजयोगी में इन दिव्य गुणों और शक्तियों की धारणा होने के कारण वह समाज के लिए एक प्रेरणादायक अंग बन जाता है. वह अपने स्व-परिवर्तन द्वारा पहले अपने परिवार को शुध्द और पावन बनाता है, परिवार के बदलने से समाज बदलता है, समाज के बदलने से देश और देश के बदलने से सारा विश्व बदल जाता है इसी प्रकार राजयोगी स्व परिवर्तन से सारे विश्व का परिवर्तन करता है.

राजयोग के बारे में और अधिक पढ़ें http://www.bkvarta.com

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