Om Shanti
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कम बोलो, धीरे बोलो, मीठा बोलो            सोच के बोलो, समझ के बोलो, सत्य बोलो            स्वमान में रहो, सम्मान दो             निमित्त बनो, निर्मान बनो, निर्मल बोलो             निराकारी, निर्विकारी, निरहंकारी बनो      शुभ सोचो, शुभ बोलो, शुभ करो, शुभ संकल्प रखो          न दुःख दो , न दुःख लो          शुक्रिया बाबा शुक्रिया, आपका लाख लाख पद्मगुना शुक्रिया !!! 

05-07-15 प्रात:मुरली ओम् शान्ति ``अव्यक्त-बापदादा'' रिवाइज:26-12-79 मधुबन



05-07-15    प्रात:मुरली    ओम् शान्ति  ``अव्यक्त-बापदादा''  रिवाइज:26-12-79   मधुबन राजयोगी अर्थात् त्रि-स्मृति स्वरूप
बाप-दादा आज तिलकधारी बच्चों को देख रहे हैं। हरेक के मस्तक पर राजयोगी अर्थात् `स्मृति भव' का तिलक और साथ-साथ विश्व-राज्य-अधिकारी का राज-तिलक। दोनों तिलक देख रहे हैं। आप सभी भी अपने दोनों तिलक को सदा देखते रहते हो। बाप-दादा सभी के मस्तक पर विशेष राजयोगी तिलक की विशेषता देख रहे हैं। विशेषता देखते हुए अन्तर क्या देखा? किसी राजयोगी के मस्तक पर तीन बिन्दियों का तिलक है। किसी के मस्तक पर दो बिन्दी का तिलक है और किसी पर एक बिन्दी का भी तिलक है। वास्तव में नॉलेजफुल बाप द्वारा विशेष तीन स्मृतियों का तीन बिन्दियों के रूप में तिलक दिया हुआ है। उन तीन स्मृतियों का त्रिशूल के रूप में यादगार बनाया है।
यह तीन स्मृतियाँ हैं - एक स्वयं की स्मृति, दूसरी बाप की स्मृति और तीसरी ड्रामा के नॉलेज की स्मृति। इन विशेष तीन स्मृतियों में सारे ही ज्ञान का विस्तार समाया हुआ है। नॉलेज के वृक्ष की यह तीन स्मृतियाँ हैं। जैसे वृक्ष का पहले बीज होता है, उस बीज द्वारा पहले दो पत्ते निकलते हैं, फिर वृक्ष का विस्तार होता है ऐसे मुख्य हैं बीज बाप की स्मृति। फिर दो पत्ते अर्थात् विशेष स्मृतियाँ - आत्मा की सारी नॉलेज और ड्रामा की स्पष्ट नॉलेज। इन तीन स्मृतियों को धारण करने वाले `स्मृति भव' के वरदानी बन जाते हैं। इन तीन स्मृतियों के आधार पर मायाजीत जगतजीत बन जाते हैं। तीनों स्मृतियों की संगमयुग पर विशेषता है इसलिए राजयोगी-तिलक तीन स्मृतियों का अर्थात् तीन बिन्दी के रूप में हरेक के मस्तक पर चमकता है। जैसे त्रिशूल से अगर एक भाग खत्म हो जाए तो यथार्थ शðा नहीं कहा जायेगा।
सम्पूर्ण विजयी की निशानी है - तीन बिन्दी अर्थात् त्रि-स्मृति स्वरूप। लेकिन होता क्या है एक ही समय पर तीनों स्मृति साथ-साथ और स्पष्ट रहें इसमें अन्तर हो जाता है। कभी एक स्मृति रह जाती, कभी दो और कभी तीन इसलिए सुनाया कि कोई दो बिन्दी के तिलकधारी देखे और कोई एक बिन्दी के तिलकधारी देखे। बहुत अच्छे-अच्छे बच्चे भी देखे जो निरन्तर तीन स्मृति के तिलकधारी भी हैं, अमिट तिलकधारी भी हैं अर्थात् जिस तिलक को कोई मिटा नहीं सकता। जब स्मृति-स्वरूप हो जाते हैं तो अमिट तिलकधारी बन जाते हैं। नहीं तो बार-बार तिलक लगाना पड़ता है। अभी-अभी मिटता है अभी-अभी लगता है। लेकिन संगमयुगी राजयोगियों को निरन्तर अविनाशी तिलकधारी होना है। माया अविनाशी को विनाशी बना न सके। रो॰ज अमृतवेले इस त्रि-स्मृति के अविनाशी तिलक को चेक करो तो माया सारे दिन में मिटाने की हिम्मत नहीं रख सकेगी। तीन स्मृति-स्वरूप अर्थात् सर्व समर्थ स्वरूप। यह समर्थ का तिलक है। समर्थ के आगे माया के व्यर्थ रूप समाप्त हो जाते हैं। माया के पाँच रूप पाँच दासियों के रूप में हो जायेंगे। परिवर्तन रूप दिखाई देगा।
काम विकार शुभ कामना के रूप में आपके पुरूषार्थ में सहयोगी रूप बन जायेगा। काम के रूप में वार करने वाला शुभ कामना के रूप में विश्व-सेवाधारी रूप बन जायेगा। दुश्मन के बजाए दोस्त बन जायेगा। क्रोधाग्नि के रूप में जो ईश्वरीय सम्पत्ति को जला रहा है, जोश के रूप में सबको बेहोश कर रहा है, यही क्रोध विकार परिवार्तित हो रूहानी जोश वा रूहानी खुमारी के रूप में बेहोश को होश दिलाने वाला बन जायेगा। क्रोध विकार सहन-शक्ति के रूप में परिवार्तित हो आपका एक शðा बन जायेगा। जब क्रोध सहन शक्ति का शðा बन जाता है तो शðा सदैव शðाधारी की सेवा अर्थ होते हैं। यही क्रोध अग्नि, योगाग्नि के रूप में परिवर्तन हो जायेगी जो आपको नहीं जलायेगी लेकिन पापों को जलायेगी। इसी प्रकार लोभ विकार ट्रस्टी रूप की अनासक्त वृत्ति के स्वरूप में उपराम स्थिति के स्वरूप में बेहद की वैराग्य वृत्ति के रूप में परिवार्तित हो जायेगी। लोभ खत्म हो जायेगा और सदा `चाहिए-चाहिए' के बदले `इच्छा मात्रम् अविद्या' स्वरूप हो जायेंगे। लोभ को `चाहिए' नहीं कहेंगे लेकिन `जाइये' कहेंगे। `लेना है, लेना है' नहीं। देना है, देना है यह परिवर्तन हो जायेगा। यही लोभ अनासक्त वृत्ति वा देने वाला दाता के स्वरूप की स्मृति-स्वरूप में परिवर्तन हो जायेगा। इसी प्रकार मोह विकार वार करने के बजाए स्नेह के स्वरूप में बाप की याद और सेवा में विशेष साथी बन जायेगा। स्नेह `याद और सेवा' में सफलता का विशेष साधन बन जायेगा। ऐसे ही अहंकार विकार देह-अभिमान से परिवार्तित हो स्वाभिमानी बन जायेगा। स्व-अभिमान चढ़ती कला का साधन है। देह-अभिमान गिरती कला का साधन है। देह-अभिमान परिवार्तित हो स्व- अभिमान के रूप में स्मृति-स्वरूप बनने में साधन बन जायेगा। इसी प्रकार यह विकार अर्थात् विकराल रूपधारी आपकी सेवा के सहयोगी, आपकी श्रेष्ठ शक्तियों के स्वरूप में परिवार्तित हो जायेंगे। ऐसे परिवर्तन करने की शक्ति अनुभव करते हो? इन तीन स्मृतियों के आधार पर पाँचों का परिवर्तन कर सकते हो। काम के रूप में आये शुभ भावना बन जाए, तब माया-जीत जगतजीत का टाइटिल मिलेगा। विजयी, दुश्मन का रूप परिवर्तन जरूर करता है। जो राजा होगा वह साधारण प्रजा बन जायेगा, तब विजयी कहलाया जायेगा। मन्त्री होगा वह साधारण व्यक्ति बन जायेगा तब विजयी कहलाया जायेगा। वैसे भी नियम है कि जो जिस पर विजय प्राप्त करता है उसको बन्दी बनाकर रखते हैं अर्थात् गुलाम बनाकर रखते हैं। आप भी इन पाँच विकारों के ऊपर विजयी बनते हो। आप इनको बन्दी नहीं बनाओ। बन्दी बनायेंगे तो फिर अन्दर उछलेंगे। लेकिन आप इन्हें परिवार्तित कर सहयोगी-स्वरूप बना दो। तो सदा आपको सलाम करते रहेंगे। विश्व-परिवर्तन के पहले स्व-परिवर्तन करो। स्व-परिवर्तन से विश्व-परिवर्तन सहज हो जायेगा। परिवर्तन करने की शक्ति सदा अपने साथ रखो। परिवर्तन-शक्ति का महत्व बहुत बड़ा है। अमृतवेले से रात तक परिवर्तन शक्ति को कैसे यू॰ज करो यह फिर सुनायेंगे।
ऐसे राजयोगी, तिलकधारी, भविष्य राज-तिलकधारी, सदा मस्तक पर तीन स्मृति-स्वरूप में समर्थ रहने वाले, माया को भी श्रेष्ठ शक्ति के रूप में सहयोगी बनाने वाले, ऐसे माया-जीत जगतजीत कहलाने वाले, सर्व शक्तियों को शðा बनाने वाले, सदा शðाधारी, श्रेष्ठ आत्माओं को बाप-दादा का याद, प्यार और नमस्ते।
एक ही समय में मन, वचन, कर्म से सेव्ा करने वाले ही बेहद के सेवाधारी टीचर्स के साथ अव्यक्त बाप-दादा की मुलाकात - टीचर्स अर्थात् बाप समान निरन्तर सेवाधारी। हर संकल्प और बोल द्वारा अनेक आत्माओं की सेवा के निमित्त। विशेष सेवा है एक ही समय तीनों प्रकार की इकùी सेवा। वाचा के साथ-साथ मन्सा की भी सेवा साथ में हो और कर्मणा अर्थात् सम्पर्क, संग से संग के आधार पर भी रंग लगाने की सेवा, बोल द्वारा भी सेवा और संकल्प द्वारा भी सेवा। तो वर्तमान समय एक-एक सेवा अलग-अलग करने का समय नहीं है। बेहद की सेवा की रफतार एक ही समय तीनों प्रकार की सेवा इकùी हो, इसको कहा जाता है - ते॰ज रफतार से बेहद की तीव्रगति वाली सेवा। तीव्रगति से बेहद के सेवाधारी बनो। सिर्फ अपना हद का स्थान नहीं लेकिन जैसे बाप एक स्थान पर रहते भी बेहद की सेवा करते हैं ऐसे निमित्त मात्र एक स्थान है लेकिन अपने को बेहद की सेवा के निमित्त समझ विश्व की आत्मायें सदा इमर्ज रूप में रहें, तब विश्व-कल्याणकारी कहलाये जायेंगे। नहीं तो देश-कल्याणकारी व सेन्टर-कल्याणकारी हो जायेंगे। जब हरेक इतना बेहद के विश्व-कल्याणकारी बनेंगे तब विश्व की आत्मायें अपने अधिकार को प्राप्त कर सकेंगी। नहीं तो थोड़े समय में कैसे पहुँचेगे? 2-4 तो नहीं हैं सारी विश्व है। तो निमित्त बनी हुई आत्माओं को संगठित रूप में बेहद की सेवा का रूप इमर्ज होना चाहिए। जैसे अपने स्थान का ख्याल रहता है, प्लैन बनाते हो, प्रैक्टिकल में लाते हो, उन्नति का ही ख्याल चलता है ऐसे बेहद की सर्व आत्माओं के प्रति सदा उन्नति का संकल्प इमर्ज रूप में हो तब परिवर्तन होगा।
विश्व-कल्याणकारी के ऊपर कितना कार्य है, स्वप्न में भी Öा नहीं हो सकते। स्वप्न में भी सेवा ही दिखाई दे, इसको कहा जाता है फुल बि॰जी क्योंकि सारे दिन का आधार स्वप्न होता है। जो दिन-रात सेवा में बि॰जी रहते हैं, उनका स्वप्न भी सेवा के अर्थ होगा। स्वप्न में भी कई नई-नई बातें, सेवा के प्लैन व तरीके दिखाई दे सकते हैं। तो इतना बि॰जी रहते हो? व्यर्थ संकल्पों से तो मुक्त हो ना? जितना बि॰जी होंगे, उतना अपने पुरूषार्थ के व्यर्थ से और औरों को भी व्यर्थ से बचा सकेंगे। हर समय चेकिंग हो कि समर्थ है या व्यर्थ। अगर ॰जरा भी व्यर्थ का अनुभव हो तो उसी समय परिवर्तन करो। निमित्त बने हुए को देख औरों में भी समर्थ के संकल्प स्वत: ही भरते जायेंगे। समझा?
बेहद के विश्व की आत्मायें सदैव इमर्ज होनी चाहिए। जब आप लोग अभी इमर्ज करो तो उन आत्माओं को भी संकल्प उत्पन्न हो कि हम भी अपना भविष्य बनायें। आपके संकल्प से उनको संकल्प इमर्ज होगा। विश्व-कल्याणकारी का अर्थ ही है विश्व के आधारमूर्त ॰जरा भी अलबेलापन विश्व को अलबेला बना देगा। इतना अटेन्शन रहे।
दिल्ली वाले भी कोई नई बातें करो। कान्Öोन्स तो बहुत पुरानी बात हो गई है। अभी नई इन्वेन्शन निकालो। कम खर्च बाला नशीन। खर्चा भी कम हो रि॰जल्ट अच्छी निकले। अब देखेंगे यू.पी. ऐसी इन्वेन्शन निकालता है या दिल्ली। अगर खर्चा ज्यादा और रि॰जल्ट कम होती है तो आने वाले स्टूडेन्ट दिलशिकस्त हो जाते हैं। अभी उनको भी उत्साह में लाने के लिए कम खर्चा और अच्छी रि॰जल्ट निकालो, जिसमें बि॰जी भी सब हो जाएं, खर्चा भी कम हो। तन और मन बि॰जी हो जाए, धन कम लगे।
पार्टियों से -
1)    स्व-स्थिति से सर्व परिस्थितियों पर विजय:- सभी सदा स्व-स्थिति के द्वारा परिस्थितियों के ऊपर विजयी रहते हो? संगमयुग पर सभी विजयी रत्न हो। तो विजय प्राप्त करने का साधन है - स्व-स्थिति द्वारा परिस्थिति पर विजय। यह देह भी पर है, स्व नहीं। तो देह के भान में आना, यह भी स्वस्थिति नहीं है। तो चेक करो सारे दिन में स्व-स्थिति कितना समय रहती है? क्योंकि स्व-स्थिति व स्वधर्म सदा सुख का अनुभव करायेगा और प्रकृति-धर्म अर्थात् पर-धर्म या देह की स्मृति किसी-न-किसी प्रकार के दु:ख का अनुभव जरूर करायेगी। तो जो सदा स्व-स्थिति में होगा वह सदा सुख का अनुभव करेगा। सदा सुख का अनुभव होता है कि दु:ख की लहर आती है? संकल्प में भी अगर दु:ख की लहर आई तो सिद्ध है स्वस्थिति से, स्वधर्म से नीचे आ गये। जब नया जन्म हो गया, सुखदाता के बच्चे बन गये, सुख के सागर के बच्चे सदा सुख में सम्पन्न होंगे। आप सभी मास्टर सागर हो तो सम्पन्न स्थिति का अनुभव होता है? समय के प्रमाण स्व का पुरूषार्थ। समय ते॰ज भाग रहा है या स्वयं भी हाई जम्प दे रहे हो? समय की रफ्तार के अनुसार अब हाई जम्प के बिना पहुँच नहीं सकते। अभी दौड़ने का समय गया। हाई जम्प लगाओ। पुरूषार्थ में `तीव्र' शब्द एड करो। याद में रहते हो, यह कोई बड़ी बात नहीं लेकिन याद के साथ-साथ सहजयोगी, निरन्तर योगी हो। अगर यह नहीं तो याद भी अधूरी रहेगी।
विश्व-सेवा और स्व की सेवा दोनों का बैलेन्स रखने से सफलता होगी। अगर स्व-सेवा को छोड़ विश्व-सेवा में लग जाते या विश्व-सेवा भूल स्व-सेवा ही करते तो सफलता मिल नहीं सकती। दोनों सेवायें साथ-साथ चाहिए। मन्सा और वाचा - दोनों सेवा इकùी होंगी तो मेहनत से बच जायेंगे। जब भी कोई सेवार्थ जाते हो तो पहले चेक करो कि स्व-स्थिति में स्थित होकर जा रहे हैं, हलचल में तो नहीं जा रहे हैं? अगर स्वयं हलचल में होंगे तो सुनने वाले भी एकाग्र नहीं होते, अनुभव नही करते।
2)    ज्ञान के सर्व रा॰जों को जानने वाले कभी नारा॰ज नहीं हो सकते:- ज्ञान के सर्व रा॰जों को जानने वाली राजयुक्त आत्मायें हो ना? अपने पुरूषार्थ के अनुसार बाप के द्वारा अनेक ज्ञान के राजों को जानते हुए, उसी में रमण करते हुए आगे बढ़ो। तो सदा राजयुक्त, सदा योगयुक्त, सदा स्नेह-युक्त ऐसे हो? ज्ञान के सर्व राजों को जानने वाले स्वयं से रा॰जी रहते और औरों को भी रा॰जी करने के अभ्यासी रहते हैं। तो सदा राजयुक्त अर्थात् रा॰जी करने वाले कभी भी नारा॰ज नहीं हो सकते। ऐसे सर्व राजों को जानने वाले बाप के प्रिय हैं, समीप हैं।
3)    सतगुरू की कृपा से मालामाल स्थिति:- जैसे भक्ति मार्ग में गुरू कृपा गाई हुई है, तो ज्ञान-मार्ग में सतगुरू की कृपा है - पढ़ाई। पढ़ाई की कृपा से सतगुरू मालामाल बना देते हैं। जिसके ऊपर सतगुरू की कृपा हो गई, वह सदा मुक्त और जीवनमुक्त बन गया।

 
वरदान:-  मनन  शक्ति  द्वारा  बुद्धि  को  शक्तिशाली  बनाने  वाले  मास्टर  सर्वशक्तिमान  भव
मनन शक्ति ही दिव्य बुद्धि की खुराक है। जैसे भक्ति में सिमरण करने के अभ्यासी हैं, ऐसे ज्ञान में स्मृति की शक्ति है। इस शक्ति द्वारा मास्टर सर्वशक्तिमान बनो। रो॰ज अमृतवेले अपने एक टाइटल को स्मृति में लाओ और मनन करते रहो तो मनन शक्ति से बुद्धि शक्तिशाली रहेगी। शक्तिशाली बुद्धि के ऊपर माया का वार नहीं हो सकता, परवश नहीं हो सकते क्योंकि माया सबसे पहले व्यर्थ संकल्प रूपी वाण द्वारा दिव्यबुद्धि को ही कमजोर बनाती है, इस कमजोरी से बचने का साधन ही है मनन शक्ति।।
स्लोगन:-  आज्ञाकारी बच्चे ही दुआओं के पात्र हैं, दुआओं का प्रभाव दिल को सदा सन्तुष्ट रखता है।

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