Om Shanti
Om Shanti
कम बोलो, धीरे बोलो, मीठा बोलो            सोच के बोलो, समझ के बोलो, सत्य बोलो            स्वमान में रहो, सम्मान दो             निमित्त बनो, निर्मान बनो, निर्मल बोलो             निराकारी, निर्विकारी, निरहंकारी बनो      शुभ सोचो, शुभ बोलो, शुभ करो, शुभ संकल्प रखो          न दुःख दो , न दुःख लो          शुक्रिया बाबा शुक्रिया, आपका लाख लाख पद्मगुना शुक्रिया !!! 

दधीचि ऋषि

प्राचीन काल में दधीचि नाम के एक महर्षि थे। उनकी पत्नी का नाम गभस्तिनी था। महर्षि वेद-शास्त्रों के पूर्ण ज्ञाता थे और स्वभाव के बड़े ही दयालु थे। अहंकार तो उन्हें छू तक नहीं गया था। वे सदा दूसरों का हित करना अपना परम धर्म समझते थे। उनके व्यवहार से उस वन के पशु-पक्षी तक संतुष्ट थे, जहाँ वे रहते थे। गंगा के तट पर ही उनका आश्रम था। जो भी अतिथि उनके आश्रम पर आता था, उसकी महर्षि और उनकी पत्नी श्रद्धा भाव से सेवा करते थे।
एक दिन की बात है, महर्षि के आश्रम पर रुद्र, आदित्य, अश्विनीकुमार, इंद्र, विष्णु यम और अग्नि आए। देवासुर संग्राम समाप्त हुआ था जिसमें देवताओं ने दैत्यों को परास्त कर दिया था। विजय के कारण सभी देवता हर्षित हो रहे थे। उन्होंने आकर यह प्रसन्नता-भरा समाचार महर्षि को सुनाया। महर्षि ने उक्त देवताओं का समुचित स्वागत किया और उनके आने का कारण पूछा।
देवताओं ने कहा, ‘‘ आप इस पृथ्वी के कल्पवृक्ष हैं। आप जैसे तपस्वी ऋषि की यदि हमारे ऊपर कृपा हो तो हमारे मार्ग में किसी प्रकार की कठिनाई उपस्थित नहीं हो सकती।"
‘‘हे मुनिश्रेष्ठ ! जीवित मनुष्यों के जीवन का इतना ही फल है कि तीर्थों में स्नान, समस्त प्राणियों पर दया और आप जैसे तपस्वी महर्षि के दर्शन करें। इस समय हम दैत्यों को परास्त करके आए हैं और इसके पश्चात् आपके दर्शन करके हमारी प्रसन्नता दूनी बढ़ गई है। अब हमारे पास ये अस्त्र-शस्त्र हैं। अब हम यदि इन्हें ले जाकर स्वर्ग में रख भी दें तो हमारे शत्रु किसी तरह पता लगाकर कभी भी इन्हें ले जा सकते हैं, इसलिए हमारा विचार इन अस्त्र-शस्त्रों को आपके आश्रम पर ही रखने का है।

‘‘हे मुनिश्रेष्ठ ! यदि आप आज्ञा दे दें तो इन्हें हम यहीं छोड़ जाएँ। इससे अधिक उपयुक्त स्थान हमें नहीं मिल सकता, क्योंकि यहाँ से दैत्य इनको चुराकर नहीं ले जा सकेंगे।"
‘‘आपकी तपस्या के प्रभाव से आपका स्थान परम सुरक्षित है। इसलिए हम अपने अस्त्र-शस्त्रों को यहाँ छो़ड़कर निश्चिंत होकर अपने लोक को जाना चाहते हैं। आप इसके लिए आज्ञा दीजिए।’’
देवताओं की बात सुनकर महर्षि दधीचि ने अपने सरल स्वभाव के कारण कह दिया, ‘‘देवताओं ! मेरा जीवन तो सदा दूसरों के उपकार के लिए ही व्यतीत हुआ है और इसी तरह होगा। तुम अपने अस्त्र-शस्त्रों को यहाँ रख सकते हो। मुझे इसमें किसी प्रकार की आपत्ति नहीं है।’’
 देवता निश्चिंत होकर चले गए। जब दैत्यों को पता चला कि देवताओं के अस्त्र-शस्त्र महर्षि के आश्रम पर हैं तो वे अनेक प्रकार के उपद्रव मचाने लगे और महर्षि को यह शंका हो उठी कि कहीं दैत्य इन अस्त्र-शस्त्रों को चुराकर न ले जाएँ।
पूरे एक हज़ार वर्ष व्यतीत हो चुके थे। देवता किसी प्रकार का समाचार तक लेने नहीं आए थे। तब एक दिन महर्षि ने अपनी पत्नी से कहा, ‘‘प्रिये ! देवताओं को गए पूरी एक सहस्राब्दी बीत गई, अभी तक उन्होंने अपने अस्त्र-शस्त्रों को आकर नहीं सँभाला। दैत्य महापराक्रमी हैं। उन्हें पता तो लग ही गया है कि देवताओं के अस्त्र-शस्त्र हमारे पास हैं, कहीं वे आकर उन्हें छीन न ले जाएँ। तब तो बड़ी विकट परिस्थिति उपस्थित हो जाएगी। उससे पहले हमारे लिए कौन-सा उचित मार्ग है, इस विषय में अपनी सम्मति प्रकट करो ?’’
उनकी पत्नी कोई उपाय सोचने लगी, लेकिन उसकी समझ में कुछ भी नहीं आया। तब महर्षि ने ही सोचकर कहा, ‘‘देवी ! यदि तुम्हारी सम्मति हो तो मैं इन सभी अस्त्र-शस्त्रों को शक्तिहीन कर दूँ ?’’
गभस्तिनी ने यह बात स्वीकार कर ली। उसी क्षण महर्षि ने मंत्रोच्चारण करते हुए उन सभी अस्त्र-शस्त्रों को पवित्र जल में नहलाया और फिर वे उस सर्वास्त्रमय परम पवित्र और तेज-युक्त जल को पी गए। तेज निकलने से सभी अस्त्र-शस्त्र शक्तिहीन हो गए। धीरे-धीरे वे नष्ट हो गए।

इसके कुछ समय पश्चात् देवता महर्षि के पास आए और उन्होंने अपने अस्त्र-शस्त्रों को वापस माँगा। देवासुर संग्राम फिर प्रारंभ हो चुका था। दैत्यों ने अपनी शक्ति बढ़ाकर देवताओं पर आक्रमण कर दिया था। देवताओं के अस्त्र-शस्त्र माँगने पर महर्षि ने कहा, ‘‘आपके अस्त्र-शस्त्र तो मेरे शरीर के अंदर स्थित हैं ! पूरी सहस्राब्दी बीत गई, तब भी आप उन्हें लेने नहीं आए। तब मैंने इस भय से कि कहीं दैत्य इनको चुराकर न ले जाएँ, उन्हें मंत्रोच्चारण के साथ पवित्र जल से स्नान कराकर और उस जल को पीकर पूरी तरह शक्तिहीन कर दिया। अब उन सभी अस्त्र-शस्त्रों का बल मेरे शरीर में पहुँच चुका है, आप लोग जैसा कहें वैसा ही मैं करूँ !’’
महर्षि की बात सुनकर देवता विनीत स्वर में कहने लगे, ‘‘हे मुनिश्रेष्ठ ! अस्त्र-शस्त्रों के बिना तो हम निस्सहाय-से असुरों के हाथों मारे जाएँगे। आप किसी प्रकार शस्त्रों का प्रबंध करिए। आप जानते ही हैं कि दैत्य महापराक्रमी हैं और अबकी बार तो उन्होंने अपार सैन्य दल एकत्रित कर लिया है। किसी प्रकार हमारी रक्षा करिए !’’
यह सुनकर दधीचि बोले, ‘‘हे देवताओं ! मेरा उद्देश्य तुम्हारा अहित करने का कभी नहीं था। अब तो तुम्हारे सारे अस्त्र-शस्त्र मेरी अस्थियों में मिल चुके हैं। यदि तुम उनको ले जाना चाहो तो ले जा सकते हो।’’
दधीचि ने उसी समय समाधि लगा ली और अपने प्राण त्याग दिए। कुछ ही क्षण पश्चात् उनका शरीर निष्प्राण हो गया। यह देखकर देवताओं ने विश्वकर्मा से कहा, ‘‘हे विश्वकर्मा ! अब महर्षि की अस्थियाँ लेकर आप अनेक अस्त्र-शस्त्र बना डालिए।’’

विश्वकर्मा ने कहा, ‘‘देवताओं ! यह ब्राह्मण का शरीर है। मैं इसका उपयोग करते हुए डरता हूँ। जब केवल इनकी अस्थियाँ मात्र रह जाएँगी, तभी मैं इसमें हाथ लगाऊँगा और उनसे अस्त्र-शस्त्र का निर्माण करूँगा।’’
विश्वकर्मा के हृदय के भय को दूर करने के लिए देवताओं ने गौओं से कहा, ‘‘हे गौओ ! हम तुम्हारा मुख वज्र के समान कर देते हैं। तुम जाकर महर्षि दधीचि के निष्प्राण शरीर को विदीर्ण कर डालो और उनका अस्थिपंजर शेष छोड़कर बाकी सभी मांस को अलग कर दो।’’
देवताओं का आदेश मानकर गौओं ने जाकर महर्षि के शरीर को विदीर्ण कर डाला और केवल अस्थिमात्र ही खड़ी छो़ड़ दी। देवताओं ने प्रसन्न होकर उन अस्थियों को उठा लिया और वे उन्हें लेकर अपने लोक को चले गए। mudh jh<+ dh gìh ls ,d cgqr 'kfDr'kkyh gfFk;kj cuk ftldk uke iM+k otzk;q¼ A
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परिवर्तन के लिए प्रतिज्ञा

परिवर्तन के लिए प्रतिज्ञा 


1. अपनी लगन को ऐसी अग्नि का रूप बनाए जिस अग्नि में सर्व व्यर्थ संकल्प ,विशेष कमजोरी व विशेष संस्कार जो समय प्रति समय विघ्न बनता है ,सारे पुराने संस्कार भस्म हो जायें/तभी कहेंगे की स्वयं में परिवर्तन लाया /

2. मधुबन को अश्वमेध रूद्र- ज्ञान महायज्ञ कहा जाता है /महायज्ञ में महाआहुति डाली जाती है /इसमें अनेक आत्माओं के लगन की अग्नि की सामूहिक आहुति डालते हैं ,जिसमे सर्व कमजोरियां आगे के लिए भस्म हो जाती हैं /

3. आहुतु सम्पूर्ण समर्पण करने का साहश हो ,पुरानी दुनिया में काम आयेगी इस लिए थोडा रखना नहीं है / करें ना करें ,होगा नही होगा जैसे संशय वाले संकल्प करने से बुद्धि रुपी हाथ आगे पीछे हो जाता है जिससे सम्पूर्ण स्वाहा नहीं होता किनारा रह जाता है ,बिखर जाता है ,जब सम्पूर्ण स्वाहा नहीं तो सम्पूर्ण सफल नही होता /

4. पहले हिम्मत कम है फिर संकल्प पावरफुल नहीं है तो कर्म में बल भी नहीं होगा इसलिए फल भी कम होगा /

5. सोचना कम है करना ज्यादा है /विनाश न हुआ तो, स्वर्ग न आया तो ,पहुंचेगे या नहीं पहुंचेंगे ,लोग क्या कहेंगे ऐसे होशियार नहीं बनना है /हाथ आगे बढाकर सेंक लगने से हाथ खींचना नहीं है /थोड़ा विघ्न आने पर कदम पीछे नहीं करना है /

6. नालेज्फुल होते हुए भी कोई ना करे ,जान बूझ करके भी ना करे ,लाइर्ट रूप और might रूप होते हुए भी कोई ना करे तो इसका कारण है नालेज बुद्धि तक है समझ तक है इसे प्रक्टिकल में लाना और समाना नही आत्ता है /

7. जितना धारणा में आता है संस्कार बन जाता है ,नालेज्फुल का अर्थ है हर एक कर्मिन्द्रियों में नालेज समा जाये ,तब आँखे और वृत्ति धोखा नहीं खायेंगी /

8. सोंचते हैं फूल करने की बात और होती है आधी,सोचने और करने में अंतर हो जाता है इसका कारण है संकल्प रुपी बिज डालकर अलबेले हो जाते हैं /बिज की संभाल और पालना नही करते /मनसा और वाचा पर अटेन्सन नहीं देते /जैसे बिज को रोज पानी देते हैं वैसे संकल्पों को रोज रिवाइज नहीं करते /

9. पुरुषार्थ की एक भी कमी का दाग बहुत बड़ा दिखता है ,और यह छोटा सा दाग मेरी वेलु कम कर देता है /इसलिए आराम पसंद के संस्कार नहीं मगर चिंतन का संकल्प हो /चिंतन एक एक संस्कार के चिंता के रूप में होना चाहिए /

10. यह नहीं तो अलबेलापन है आराम पसंद देवता के स्टेज का संस्कार है /ब्राह्मणों के संस्कार त्यागमूर्त के हैं /त्याग बिना भाग्य नहीं बनता /

11. अच्छा कर लेंगे देखा जाएगा यह आराम पसंदी के संस्कार हैं ,जरूर करूंगा यह ब्राह्मंपन के संस्कार है /

12. अब शुभ चिंतन करने की,कमजोरी को दूर करने की सम्पूर्ण बनने की और प्रत्यक्ष फल देने की चिंता लगनी चाहिए /

राजा जनक को आत्म ज्ञान की प्राप्ति

      मिथिला नामक देश में एक महाप्रतापी राजा हुए । उनका नाम महाराज जनक था । महाराज जनक को आत्मज्ञान के बारे में बहुत जिज्ञासा थी । और इस पर चर्चा के लिए उनके दरबार में हमेशा विद्वानों की महफ़िल बनी रहती थी । पर राजा जनक को जिस आत्मज्ञान की तलाश थी । उसके बारे में कोई विद्वान उन्हें संतुष्ट नहीं कर पाता था । उन्हीं दिनों की बात है राजा जनक ने एक रात में सोते हुए एक सपना देखा कि वो अपने बहुत सारी सेना के साथ जंगल में शिकार खेलने के लिए गए हुए हैं । एक जंगली सूअर का पीछा करते करते राजा जनक बहुत दूर तक निकल गए । उनकी सारी सेना पीछे छूट गयी । और वह सूअर घने जंगल में बहुत दूर जाकर अदृश्य हो गया । राजा जनक  थककर चूर हो चूका थे । उनकी पूरी सेना का कोई पता नहीं था । अब राजा को बहुत तेज भूख प्यास लगने लगी थी । बेचैन होकर राजा ने इधर उधर नजर दौड़ाई । तो कुछ ही दूर पर उन्हें एक झोपड़ी नजर आई । जिसमें से धुआं उठ रहा था । राजा ने सोचा कि वहां कुछ खाने पीने के लिए मिल जायेगा । वो झोपड़ी में गये । तो  देखा कि झोपड़ी के अन्दर एक बुढ़िया औरत बैठी हुई थी । राजा ने कहा । मैं एक राजा हूँ । और मुझे खाने की लिए कुछ दो । मैं बहुत भूखा हूँ । बुढिया ने कहा कि इस समय खाने के लिए कुछ नहीं है । और मुझसे काम नहीं होता । लेकिन यदि तुम चाहो तो वहां थोड़े से चावल रखे है । तुम उनको पकाकर खा सकते हो । राजा ने सोचा । इस समय इसके अतिरिक्त और कोई उपाय भी तो नहीं है । राजा ने बड़ी मुश्किल से चूल्हा जलाकर किसी तरह भात को पकाया । फिर जैसे ही राजा एक केले के पत्ते पर रखकर उस भात को खाने लगा । तभी तेजी से दौड़ता हुआ एक सांड आया । और पूरे भात पर धूल गिर गई । उसी समय राजा की आँख खुल गई । और वो राजा आश्चर्यचकित होकर चारों और देखने लगा । उसके मन में ख्याल आया कि मैंने एक राजा होकर इस तरह का स्वप्न क्यों देखा ?? यही सोचते हुए राजा को पूरी रात नींद नहीं आई ।
दूसरी सुबह राजा ने दो सिंहासन बनवाये और एक एलान अपने राज्य में कर दिया कि मेरे दो प्रश्न हैं । जो कोई मेरे पहले प्रश्न का जवाब देगा । उसे मैं अपना आधा राज्य दूंगा । और यदि नहीं दे पाया । तो बदले में आजीवन कारावास मिलेगा । तथा जो मेरे दूसरे प्रश्न का उत्तर देगा । उसे मैं पूरा राज्य दूंगा । और यदि नहीं दे पाया तो उसे फांसी की सजा होगी । राजा ने ये दोनों सजाएँ इसलिए तय कर दी थी कि वही लोग उसका उत्तर देने आये जिनको वास्तविक ज्ञान हो । ऐसा न करने पर फालतू लोगों की काफी भीड़ हो सकती थी ।
..
आगे की कहानी जानने से पहले हमें महान संत अष्टावक्र के बारे में जानना होगा । अष्टावक्र जी उन दिनों मां के गर्भ में थे । और संत होने के कारण उन्हें गर्भ में भी ज्ञान था । एक दिन की बात है । जब अष्टावक्र के पिता शास्त्रों का अध्ययन कर रहे थे । अष्टावक्र ने कहा । पिताजी । जिस परमात्मा को तुम खोज रहे हो । वो शास्त्रों में नहीं है । अष्टावक्र के पिता शास्त्रों के ज्ञाता थे । उन्हें अपने गर्भ स्थिति पुत्र की बात सुनकर बहुत क्रोध आया । उन्होंने कहा । तू मुझ जैसे ज्ञानी से ऐसी बात कहता है । जा मैं तुझे शाप देता हूँ कि तू आठ जगह से टेढा पैदा होगा । इस तरह ज्ञानी अष्टावक्र विकृत शरीर के साथ पैदा हुए थे । उधर क्या हुआ कि अष्टावक्र के पिता को धन की कमी हो गई । तो वे राजा जनक के आधे राज्य के इनाम वाला उत्तर देने चले गए । और उत्तर ठीक से नहीं दे पाए । अतः आजीवन कारावास में डाल दिए गए । इस तरह 12 साल गुजर गए । अष्टावक्र अब 12 साल की आयु के हो गए थे । और लगभग विकलांग जैसे थे । एक दिन जब अष्टावक्र अपने साथियों के साथ खेल रहे थे । सब अपने अपने पिता के बारे में बात करने लगे । तो अष्टावक्र भी करने लगे । अब क्योंकि बच्चों ने उनके पिता को जेल मैं पड़े होने के कारण कभी देखा नहीं था । इसलिए सब बच्चों ने उन्हें झिड़क दिया कि झूठ बोलता है । तेरा पिता तो कोई है ही नहीं । हमने उन्हें कभी नहीं देखा
अष्टावक्र जी अपनी माँ के पास आये । और बोले कि माँ आज तुम्हे बताना ही होगा कि मेरे पिता कहाँ गए हैं ?? वास्तव में जब भी बालक अष्टावक्र अपने पिता के बारे में पूछता । तो उसकी माँ जवाव देती कि वे धन कमाने बाहर गए हुए है । आज अष्टावक्र जी जिद पकड़ गए कि उन्हें सच बताना ही होगा कि उनके पिता कहाँ हैं ?? तब हारकर उनकी माँ ने उन्हें बताया कि वे राजा जनक की जेल में पड़े हुए है । बालक अष्टावक्र ने कहा कि वे अपने पिता को छुडाने जायेंगे । और राजा के दोनों प्रश्नों का जवाव भी देंगे । उनकी माँ ने बहुत कहा कि यदि राजा ने तुझे भी जेल में डाल दिया । तो फिर मेरा कोई सहारा नहीं रहेगा । लेकिन अष्टावक्र जी ने उनकी एक न सुनी । और वे कुछ बालकों के साथ राजा जनक के महल के सामने पहुँच गए । एक बालक को महल की तरफ घुसते हुए देखकर दरबान ने उन्हें झिड़का ।  ऐ बालक कहाँ जाता है ?? वक्र जी बोले । मैं राजा जनक के प्रश्नों का उत्तर देने आया हूँ । मुझे अन्दर जाने दो । दरबान ने बालक जानकर उन्हें रोकने की बहुत कोशिश की । तब अष्टावक्र ने कहा कि वो राजा से उसकी शिकायत करेंगे । क्योंकि राजा ने ये घोषणा कराइ है कि कोई भी उनके प्रश्नों का उत्तर दे सकता है । ये सुनकर दरबान डर गया । वो समझ गया कि ये बालक तेज है । यदि इसने मेरी शिकायत कर दी । तो राजा मुझे दंड दे सकता है । क्योंकि ये बालक सच कह रहा है । उसने अष्टावक्र को अन्दर जाने दिया । अन्दर राजा की सभा जमी हुई थी । अष्टावक्र जी जाकर सीधे उस सिंहासन पर बैठ गए । जिस पर बैठने बाले को राजा के दुसरे प्रश्न का जवाव देना था । और इनाम में पूरा राज्य मिलता । तथा जवाव न दे पाने की दशा में उन्हें फांसी की सजा मिलती । एक विकलांग बालक को ऐसा करते देखकर सब आश्चर्यचकित रह गए । और फिर पूरी सभा जोर जोर से हंसी । उनके चुप हो जाने के बाद अष्टावक्र जोर से हँसे । राजा जनक ने कहा कि सभा के विद्वान क्यों हँसे ? ये तो मेरी समझ में आया । पर तुम क्यों हँसे ? ये मेरी समझ में नहीं आया ।
अष्टावक्र ने कहा । राजा मैं इसलिए हंसा कि मैंने सुना था कि आपके यहाँ विद्वानों की सभा होती है, पर मुझे तो इनमें एक भी विद्वान नजर नहीं आ रहा । ये सब तो चमड़े की पारख करने वाले चर्मकार मालूम होतें हैं । अष्टावक्र के ये कहते ही राजा जनक समझ गए कि ये बालक कोई साधारण बालक नहीं हैं । लेकिन अष्टावक्र के द्वारा विद्वानों को चर्मकार कहते ही सभा में मौजूद विद्वान भड़क उठे । उन्होंने कहा । ये चपल बालक हमारा अपमान करता है । अष्टावक्र ने कहा । मैं किसी का अपमान नहीं करता । पर आप लोगों को मेरा विकलांग शरीर दिखाई देता है । विकलांग शरीर होने से क्या इसमें विराजमान आत्मा भी विकलांग हो गयी । क्या किसी भी ज्ञान का शरीर से कोई सम्बन्ध है ? उनकी ये बात सुनकर पूरी सभा में सन्नाटा हो गया । राजा जनक ने उनकी बात का समर्थन किया । राजा जनक समझ गए कि बालक के रूप में ये कोई महान ज्ञानी आया है । ये बोध होते ही जनक अपने सिंहासन से उठकर कायदे से अष्टावक्र के पास पहुंचे । और उन्हें दंडवत प्रणाम किया । अष्टावक्र बोले । पूछो क्या पूछना है ?? जनक ने अपना पहला प्रश्न किया । उन्होंने अपने सूअर के शिकार वाला स्वप्न सुनाया । और कहा कि स्वप्न व्यक्ति की दशा और सोच पर आधारित होते हैं । कहाँ मैं एक चक्रवर्ती राजा । और कहाँ वो दीनदशा दर्शाता मेरा स्वप्न ? जिसमें मैं लाचारों की तरह परेशान था । इनमें क्या सच है ? एक चक्रवर्ती राजा या वो स्वप्न ..? अष्टावक्र हंसकर बोले । न ये सच है । न वो स्वप्न सच था । वो स्वप्न 15 मिनट का था । और जो ये तू राजा है । ये स्वप्न 100 या 125 साल का है । इन दोनों में कोई सच्चाई नहीं है । वो भी सपना था । ये जो तू राजा है । ये भी एक सपना ही है । क्योंकि तेरे मरते ही ये सपना भी टूट जायेगा..?? इस उत्तर से पूरी सभा दंग रह गई । इस उत्तर ने सीधे राजा की आत्मा को हिला दिया । और वे संतुष्ट हो गए । आधा राज्य अष्टावक्र जी को दे दिया गया । पर क्योंकि अष्टावक्र जी पूरे राज्य के इनाम वाली कुर्सी पर बैठे थे । इसलिए बोले बताओ । राजन तुम्हारा दूसरा प्रश्न क्या है ?? जनक ने कहा । मैंने शास्त्रों में पढा है । और बहुतों से सुना है कि यदि कोई सच्चा संत मिल जाय । तो परमात्मा का ज्ञान इतनी देर में हो जाता है । जितना घोड़े की एक रकाब से दूसरी रकाब में पैर रखने में समय लगता है । अष्टावक्र बोले । बिलकुल सही सुना है । राजा बोले ठीक है । फिर मुझे इतने समय में परमात्मा का अनुभव कराओ । अष्टावक्र जी बोले । राजन तैयार हो जाओ । लेकिन इसके बदले में मुझे क्या दोगे ? जनक बोले- मेरा सारा राज्य आपका । अष्टावक्र जी बोले । राज्य तो तुझे भगवान का दिया है । इसमें तेरा क्या है ? जनक बोले- मेरा ये शरीर भी आपका । अष्टावक्र जी बोले । तूने तन तो मुझे दे दिया । लेकिन तेरा मन अपनी चलाएगा । तब जनक बोले- मेरा ये मन भी आपका हुआ । अष्टावक्र जी बोले – देख राजन, तुम मुझे अपना तन मन धन सब दे चुके हो अब मैं इसका मालिक हूँ, तुम नहीं | तो मैं हुक्म करता हूँ कि तुम सबके जूतों में जाकर बैठ जाओ | यह बात सुनकर दरबार में सन्नाटा छा गया | मगर राजा जनक समझदार थे जरा भी नहीं झुंझलाये | और जूतियों में जाकर बैठ गये | अष्टावक्र ने ऐसा इस लिए किया कि राजा से लोक-लाज छुट जाये | लोक- लाज रूकावट है बड़े-बड़े लोग यहाँ आकर रुक जाते है |
       फिर अष्टावक्र ने कहा कि यह धन मेरे है मेरे धन में मन न लगाना | राजा का ध्यान बार-बार अपने राज,धन की और जाता और वापस आ जाता कि नहीं यह तो अब अष्टावक्र जी का हो चूका है | मन की आदत है, वह बेकार और चुप नहीं बैठता, कुछ न कुछ सोचता ही रहता है | राजा के मन का यह खेल अष्टावक्र देख रहे थे | आखिर राजा आँखे बंद करके बैठ गया कि मैं बाहर न देखूं,न मेरा मन वैभवो में भागे | अष्टावक्र जी यही चाहते थे उन्होंने राजा जनक से कहा तुम कहाँ हो | राजा जनक बोले मैं यहाँ हूँ | इस पर अष्टावक्र बोले- तुम मुझे मन भी दे चुके हो, खबरदार जो उसमे कोई ख्याल भी उठाया तो | राजा जनक समझदार थे समझ गये कि अब मेरे अपने मन पर भी मेरा कोई अधिकार नहीं है | समझने की देर थी कि मन रुक गया | जब ख्याल बंद हुआ तो अष्टावक्र ने अपनी अनुग्रह दृष्टी दे दी | रूह अंदर की यात्रा पर चल पड़ी रूहानी मंजिल की सैर करने | राजा को अंतर का आनंद होने लगा | घंटे भर पश्चात राजा जनक को अष्टावक्र ने आवाज दी | राजा ने अपनी आंखे खोली तो अष्टावक्र ने पुछा – क्या तुम्हे ज्ञान हो गया | राजा जनक ने जवाब दिया - हाँ हो गया | तब अष्टावक्र ने कहा मैं तुम्हे तन,मन,धन वापिस देता हूँ इसे अपना न समझना | अब तुम राज्य भी करो और आत्म ज्ञान का आनंद लो | इस तरह अष्टावक्र ने एक सेकंड में मुक्ति और जीवनमुक्ति पाने की विधि बताई और ज्ञान दिया | राजा जनक ने अष्टावक्र जी के पिता और सभी कैदियों को रिहा करवा दिया । राजा जनक ने उन्हे गुरु का स्थान दिया । और आत्मज्ञान प्राप्त किया
आध्यात्मिक भाव
जीवनमुक्त स्तिथि माना जीते जी सब आकर्षण, बंधन, वैभवो के प्रभाव ससे मुक्त रहना | इसका मतलब यह नहीं कि सब कुछ छोडकर सभी से दूर रहना परन्तु सबके बीच रहते हुए, सभी जिम्मेवारियों को निभाते हुए भी किसे भी बंधन में नहीं फँसना सुख और दुख: के बंधन में भी नहीं फँसना – यही सच्ची जीवनमुक्त स्तिथि है जो शिवबाबा सिखाते है |

20-6-2012 MURLI HINDI AND ENGLISH


[20-06-2012]

मुरली सार:- ''मीठे बच्चे - यह पाठशाला है नर से नारायण बनने की, पढ़ाने वाला स्वयं सत्य बाप, सत शिक्षक और सतगुरू है, तुम्हें इसी निश्चय में पक्का रहना है'' 
प्रश्न: तुम बच्चों को किस बात का जरा भी फिकर नहीं होना चाहिए, क्यों? 
उत्तर: अगर कोई चलते-चलते हार्टफेल हो जाता, शरीर छोड़ देता तो तुम्हें फिकर नहीं होना चाहिए क्योंकि तुम जानते हो हरेक को अपनी एक्ट करना है। तुम्हें खुश होना चाहिए कि आत्मा, ज्ञान और योग के संस्कार लेकर गई तो और ही भारत की अच्छी सेवा करेगी। फिकर की बात नहीं। यह तो ड्रामा की भावी है। 
गीत:- तुम्हीं हो माता... 
धारणा के लिए मुख्य सार: 
1) श्रीमत पर पढ़ने और पढ़ाने का धन्धा करना है। ड्रामा की भावी पर अटल रहना है। किसी भी बात का फिकर नहीं करना है 
2) अन्तकाल में एक बाप के सिवाय और कोई भी याद न आये, इसलिए इस देह को भी भूलने का अभ्यास करना है। अशरीरी बनना है। 
वरदान: सर्व आत्माओं के अशुभ भाव और भावना का परिवर्तन करने वाले विश्व परिवर्तक भव 
जैसे गुलाब का पुष्प बदबू की खाद से खुशबू धारण कर खुशबूदार गुलाब बन जाता है। ऐसे आप विश्व परिवर्तक श्रेष्ठ आत्मायें अशुभ, व्यर्थ, साधारण भावना और भाव को श्रेष्ठता में, अशुभ भाव आर भावना को शुभ भाव और भावना में परिवर्तन करो, तब ब्रह्मा बाप समान अव्यक्त फरिश्ता बनने के लक्षण सहज और स्वत: आयेंगे। इसी से माला का दाना, दाने के समीप आयेगा। 
स्लोगन: अनुभवी स्वरूप बनो तो चेहरे से खुशनसीबी की झलक दिखाई देगी। 

[20-06-2012]

Essence: Sweet children, this is the school for becoming Narayan from an ordinary man. The one who is teaching you is the true Father, the true Teacher and the true Satguru Himself. You have to remain firm in this faith. 
Question: What should you children never have the slightest worry about and why? 
Answer: If, while following this path, someone has heart failure and leaves his body, you should not worry because you know that each one has to perform his own act. You should be happy because you know that that soul has taken the sanskars of knowledge and yoga with him and so will now serve Bharat even better. There is no question of worrying; it was destined in the drama. 
Song: You are the Mother and You are the Father. 

Essence for dharna: 
1. You have to do the business of studying and teaching others on the basis of shrimat. Remain firm on the destiny of the drama. Do not worry about anything. 
2. At the end, no one but the Father should be remembered. Therefore, practise forgetting even that body. You have to become bodiless. 

Blessing: May you be a world transformer who transforms impure feelings and intentions of all souls. 
Just as a rose takes fragrance from bad-smelling fertilizer and becomes a fragrant rose, in the same way, elevated world transformer souls transform impure, wasteful and ordinary feelings and intentions into greatness. They transfer impure feelings and intentions into pure feelings and intentions for only then can they easily and automatically develop the qualifications for becoming avyakt angels, the same as Father Brahma. The beads of the rosary will come close to one another in this way. 
Slogan: Become an experienced image and the sparkle of the fortune of happiness will be visible on your face. 


[19-06-2012]

मुरली सार:- ''मीठे बच्चे - ब्राह्मण बनकर कोई ऐसी चलन नहीं चलना जो बाप का नाम बदनाम हो, धन्धाधोरी करते सिर्फ श्रीमत पर चलते रहो'' 
प्रश्न: गॉडली स्टूडेन्ट के मुख से कौन से शब्द नहीं निकलने चाहिए? 
उत्तर: हमें पढ़ाई पढ़ने की फुर्सत नहीं है, यह शब्द तुम्हारे मुख से नहीं निकलने चाहिए। बाप कोई बच्चों के सिर पर आपदा (बोझ-समस्या) नहीं डालते सिर्फ कहते हैं सवेरे-सवेरे उठ एक घड़ी, आधी घड़ी मुझे याद करो और पढ़ाई पढ़ो। 
प्रश्न:- मनुष्यों का प्लैन क्या है और बाप का पलैन क्या है? 
उत्तर:- मनुष्यों का प्लैन है - सब मिलकर एक हो जाएं। नर चाहत कुछ और...बाप का प्लैन है झूठ खण्ड को सचखण्ड बनाना। तो सचखण्ड में चलने के लिए जरूर सच्चा बनना पड़े। 
गीत:- आज के इंसान को... 
धारणा के लिए मुख्य सार: 
1) सच खण्ड के लिए सच्ची कमाई करनी है। आत्म-अभिमानी होकर रहना है। इस सड़ी हुई जुत्ती (शरीर) का अभिमान छोड़ देना है। 
2) रहमदिल बन अपना और दूसरों का कल्याण करना है। सवेरे-सवेरे उठ बाप को याद करते, स्वदर्शन चक्र फिराना है। 
वरदान: शुभ भावना और श्रेष्ठ भाव द्वारा सर्व के प्रिय बन विजय माला में पिरोने वाले विजयी भव 
कोई किसी भी भाव से बोले वा चले लेकिन आप सदा हर एक के प्रति शुभ भाव, श्रेष्ठ भाव धारण करो, इसमें विजयी बनो तो माला में पिरोने के अधिकारी बन जायेंगे, क्योंकि सर्व के प्रिय बनने का साधन ही है सम्बन्ध-सम्पर्क में हर एक के प्रति श्रेष्ठ भाव धारण करना। ऐसे श्रेष्ठ भाव वाला सदा सभी को सुख देगा, सुख लेगा। यह भी सेवा है तथा शुभ भावना मन्सा सेवा का श्रेष्ठ साधन है। तो ऐसी सेवा करने वाले विजयी माला के मणके बन जाते हैं। 
स्लोगन: कर्म में योग का अनुभव करना ही कर्मयोगी बनना है। 

[19-06-2012]

Essence: Sweet children, after becoming Brahmins, don’t let there be any such behaviour that the Father’s name would be defamed. While doing business etc., simply continue to follow shrimat. 
Question: Which words should not emerge from the lips of Godly students? 
Answer: “We don’t have time to study.” These words should not emerge from your lips. The Father does not place any difficulty on the children’s heads. He simply says: Awaken in the early hours of the morning and remember Me and study for an hour or half an hour. 
Question: What is the plan of human beings and what is the Father’s plan? 
Answer: The plan of human beings is to unite and become one. Human beings desire one thing, but the Father’s plan is to change the land of falsehood into the land of truth. So, in order to go to the land of truth, you definitely have to become truthful. 
Song: What has happened to the human beings of today? 

Essence for dharna: 
1. Earn a true income in order to go to the land of truth. Be soul conscious. Shed the consciousness of that decayed old shoe (body). 
2. Be merciful and bring benefit to yourself and others. Awaken early in the morning, remember the Father and spin the discus of self-realisation. 

Blessing: May you become victorious and threaded in the rosary of victory by being loved by all with your pure feelings and elevated intentions. 
No matter with what intentions someone speaks or moves along, you must always imbibe pure and elevated intentions for each one. Be victorious in this and you will claim a right to be threaded in the rosary because the way to be loved by everyone is to imbibe elevated intentions for everyone in your relationships and connections. Those who have such elevated intentions will constantly give happiness to everyone and receive happiness. This is also service and pure feelings are an elevated means for serving through the mind. Those who do such service become beads of the rosary of victory. 
Slogan: To experience yoga in karma is to be a karma yogi. 

18-6-2012 MURLI HINDI AND ENGLISH



[18-06-2012]

मुरली सार:- ''मीठे बच्चे - सदा इसी नशे में रहो कि ज्ञान सागर बाप की ज्ञान वर्षा हमारे ऊपर हो रही है, जिससे हम पावन बन अपने बड़े घर में जायेंगे'' 
प्रश्न: तुम बच्चों का निश्चय किस आधार से और भी पक्का होता जायेगा? 
उत्तर: दुनिया में जितने हंगामें बढ़ेंगे, तुम्हारे दैवी झाड़ की वृद्धि होगी, उतना पुरानी दुनिया से दिल हटती जायेगी और तुम्हारा निश्चय पक्का होता जायेगा। विहंग मार्ग की सर्विस होती जायेगी, धारणा पर अटेन्शन देते जायेंगे तो बुद्धि का हौंसला बढ़ता जायेगा। अपार खुशी में रहेंगे। 
धारणा के लिए मुख्य सार: 
1) कर्मभोग से छूटने के लिए एक बाप की याद में रहना है। देहधारी की याद से टाइम वेस्ट नहीं करना है। बुद्धि की लाइन बहुत क्लीयर रखनी है। 
2) भोजन बहुत शुद्ध खाना है। जैसा अन्न वैसा मन इसलिए किसी भी मलेच्छ के हाथ का भोजन नहीं खाना है। बुद्धि को स्वच्छ बनाना है। 
वरदान: विपरीत भावनाओं को समाप्त कर अव्यक्त स्थिति का अनुभव करने वाले सद्भावना सम्पन्न भव 
जीवन में उड़ती कला वा गिरती कला का आधार दो बातें हैं - भावना और भाव। सर्व के प्रति कल्याण की भावना, स्नेह-सहयोग देने की भावना, हिम्मत-उल्लास बढ़ाने की भावना, आत्मिक स्वरूप की भावना वा अपने पन की भावना ही सद्भावना है, ऐसी भावना वाले ही अव्यक्त स्थिति में स्थित हो सकते हैं। अगर इनके विपरीत भावना है तो व्यक्त भाव अपनी तरफ आकर्षित करता है। किसी भी विघ्न का मूल कारण यह विपरीत भावनायें हैं। 
स्लोगन: सर्वशक्तिमान् बाप जिसके साथ है, माया उसके सामने पेपर टाइगर है। 

[18-06-2012]

Essence: Sweet children, always have the intoxication that you are being showered with the rain of knowledge by the Father, the Ocean of Knowledge, and that you will become pure through this and return to your great home. 
Question: On what basis will the faith of you children continue to become even stronger? 
Answer: As chaos increases in the world and your divine tree continues to grow, the more your hearts will move away from the old world and the stronger your faith will continue to become. Service will happen at a very fast pace. If you continue to pay attention to dharna, the enthusiasm of your intellects will increase and you will stay in limitless happiness. 

Essence for dharna: 
1. In order to become free from the suffering of karma, stay in remembrance of the one Father. Don’t waste time by remembering any bodily being. Keep the line of your intellect very clear. 
2. Eat very pure food. As is the food, so the mind. Therefore, do not eat food prepared by impure people. You must make your intellect clean. 

Blessing: May you be filled with good wishes and finish all conflicting feelings and experience the avyakt stage. 
In life, the basis of a flying stage or a descending stage are two things: feelings and intentions. To have benevolent feelings, feelings of being loving and co-operative, feelings of increasing courage and enthusiasm, feelings of being soul conscious and the feeling of belonging are good wishes. Only those who have such feelings are able to stabilize in the avyakt stage. If there are feelings in conflict with these, the physical intentions attract you. The main reason for any obstacle is a conflict of feelings. 
Slogan: For those who have the Almighty Authority with them, Maya is a paper tiger. 

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