Om Shanti
Om Shanti
कम बोलो, धीरे बोलो, मीठा बोलो            सोच के बोलो, समझ के बोलो, सत्य बोलो            स्वमान में रहो, सम्मान दो             निमित्त बनो, निर्मान बनो, निर्मल बोलो             निराकारी, निर्विकारी, निरहंकारी बनो      शुभ सोचो, शुभ बोलो, शुभ करो, शुभ संकल्प रखो          न दुःख दो , न दुःख लो          शुक्रिया बाबा शुक्रिया, आपका लाख लाख पद्मगुना शुक्रिया !!! 

Pure feeling-1


राजयोग ( विस्तार से )


RAJYOGA SHIVIR PRAVACHAN - Usha Behen


Rajyoga Shivir is a Seven day basic course to learn Rajyoga Meditation. This Rajyoga course can be done from any of the Brahmakumaris Local Branches. The following sessions also cover Complete Rajyoga Course.

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मीठी जगदम्बा माँ की विशेषताएँ -दादियों से अनुभव से



21-6-2012 MURLI HINDI AND ENGLISH

[21-06-2012]

मुरली सार:- ''मीठे बच्चे - 21 जन्मों की पूरी प्रालब्ध लेने के लिए बाप पर पूरा-पूरा बलि चढ़ो, अधूरा नहीं, बलि चढ़ना अर्थात् बाप का बन जाना'' 
प्रश्न: किस गुह्य बात को समझने के लिए बेहद की बुद्धि चाहिए? 
उत्तर: यह बेहद का बना बनाया ड्रामा है, जो पास्ट हुआ ड्रामा पूरा होता है, हम घर जायेंगे, फिर नये सिर पार्ट शुरू होगा.. यह गुह्य बातें समझने के लिए बेहद की बुद्धि चाहिए। बेहद रचना का ज्ञान बेहद का बाप ही देते हैं। 
प्रश्न:- मनुष्य किस बात में हाय-हाय कर रड़ी मारते हैं और तुम बच्चे खुश होते हो? 
उत्तर:- अज्ञानी मनुष्य थोड़ी सी बीमारी आने पर रड़ी मारते, तुम बच्चे खुश होते क्योंकि समझते हो यह भी पुराना हिसाब-किताब चुक्तू हो रहा है। 
गीत:- तूने रात गंवाई सोके.... 
धारणा के लिए मुख्य सार: 
1) श्रीमत पर अपने कुल का उद्धार करना है। सारे कुल को पावन बनाना है। बाप को अपना सच्चा-सच्चा पोतामेल देना है। 
2) याद के बल से अपनी काया को निरोगी बनाना है। बाप पर पूरा-पूरा बलिहार जाना है। बुद्धियोग और संग तोड़ एक संग जोड़ना है। 
वरदान: शुद्ध संकल्प और श्रेष्ठ संग द्वारा हल्के बन खुशी की डांस करने वाले अलौकिक फरिश्ते भव 
आप ब्राह्मण बच्चों के लिए रोज़ की मुरली ही शुद्ध संकल्प हैं। कितने शुद्ध संकल्प बाप द्वारा रोज़ सवेरे-सवेरे मिलते हैं, इन्हीं शुद्ध संकल्पों में बुद्धि को बिजी रखो और सदा बाप के संग में रहो तो हल्के बन खुशी में डांस करते रहेंगे। खुश रहने का सहज साधन है-सदा हल्के रहो। शुद्ध संकल्प हल्के हैं और व्यर्थ संकल्प भारी हैं इसलिए सदा शुद्ध संकल्पों में बिजी रह हल्के बनों और खुशी की डांस करते रहो तब कहेंगे अलौकिक फरिश्ते। 
स्लोगन: परमात्म प्यार की पालना का स्वरूप है - सहजयोगी जीवन। 

[21-06-2012]

Essence: Sweet children, in order to claim the full reward of 21 births, sacrifice yourselves completely to the Father, not by half measure. To sacrifice the self means to belong to the Father. 
Question: For understanding which deep aspect do you need an unlimited intellect? 
Answer: This is a predestined unlimited drama. That which has passed in the drama is said to have finished. We will return home and then our parts will begin afresh once again. An unlimited intellect is needed to understand this deep aspect. Only the unlimited Father gives the knowledge of the unlimited creation. 
Question: What is it that makes people cry out in distress whereas you children are happy about it? 
Answer: Ignorant people cry out at even a little bit of sickness, whereas you children become happy because you understand that it is an old karmic account that is being settled. 
Song: You spent the night sleeping and the day eating! 

Essence for dharna: 
1. Bring benefit to your clan on the basis of shrimat. Make your entire clan pure. Give your true account to the Father. 
2. With the power of remembrance, make your body free from disease. Sacrifice yourself completely to the Father. Break the intellect’s yoga away from all others and connect it to the One. 
Blessing: May you perform the dance of happiness by being light with pure thoughts and elevated company and thereby become an alokik angel. 
For you Brahmin children, everyday’s murli are of pure thoughts. You receive so many pure thoughts from the Father every day, early in the morning. Keep your intellect busy in these pure thoughts and stay constantly in the Father’s company and you will become light and continue to dance in happiness. The easy way to remain happy is to remain constantly light. Pure thoughts are light whereas wasteful thoughts are heavy. Therefore, remain constantly busy in pure thoughts and become light and continue to perform the dance of happiness for only then will you be said to be an alokik angel. 
Slogan: The form of the sustenance of God’s love is an easy yogi life. 


अंगद

अंगद
( किष्किन्धा कांड )
अंगद बाली का पुत्र था | वह बहुत समझदार, धार्मिक और शक्तिशाली व्यक्ति था | श्रीराम का असीम भक्त था और सुग्रीव(बाली का छोटा भाई ) के राज्य में बहुत बफादारी से सेवा करता था |
जब सीता को रावण ने चुराया तब अंगद को श्रीराम का  दूत बनाकर भेजने का निर्णय लिया गया | अंगद रामदूत बनकर रावण की सभा में प्रविष्ट हुआ | अंगद ने बहुत ही नम्रता से रावण को समझाया कि उसने सीता का अपहरण करके बहुत बड़ा पाप किया है इसलिए वो अपना अपराध स्वीकार कर, सीता जी को छोड़ , श्रीराम की शरण में आ जाए | घमंडी रावण ने अंगद को कहा कि वह उन्हें एक क्षण में उठा फेंकेगा | तब अंगद ने रावण को ललकारते हुए कहा कि इतनी मेहनत करने की जरूरत नहीं है | अगर वह अपनी शक्ति दिखाना चाहता है तो उसका एक पैर ही हिलाकर दिखाए | सभा में उपस्थित सभी राक्षस वीरो ने अंगद का पैर हिलाने का भरसक प्रयत्न किया परन्तु असमर्थ रहे | जब रावण अंगद के पैर को पकड़कर हिलाने के लिए आगे बढा तो अंगद ने कहा-" हे रावण ! मेरे पाँव पकड़ने की बजाए यदि श्रीराम की शरण लोगे तो पुण्य आत्मा बन जाओगे |"
  अध्यात्मिक भाव -
'निश्चय बुद्धि विजयंती ',अंगद की कहानी इस मंत्र का प्रत्यक्ष प्रमाण है | अंगद की अटूट भक्ति-भावना और सम्पूर्ण निश्चय श्रीराम में था इस लिए उसको कोई हिला नहीं सका | इसी तरह माया भी बुद्धिरूपी पाँव को हिलाने के लिए भिन्न-भिन्न रूपों से , भिन्न- भिन्न समय पर आती है जो निश्चय बुद्धि है उनका माया कुछ भी बिगाड़ नहीं सकती है |

दधीचि ऋषि

प्राचीन काल में दधीचि नाम के एक महर्षि थे। उनकी पत्नी का नाम गभस्तिनी था। महर्षि वेद-शास्त्रों के पूर्ण ज्ञाता थे और स्वभाव के बड़े ही दयालु थे। अहंकार तो उन्हें छू तक नहीं गया था। वे सदा दूसरों का हित करना अपना परम धर्म समझते थे। उनके व्यवहार से उस वन के पशु-पक्षी तक संतुष्ट थे, जहाँ वे रहते थे। गंगा के तट पर ही उनका आश्रम था। जो भी अतिथि उनके आश्रम पर आता था, उसकी महर्षि और उनकी पत्नी श्रद्धा भाव से सेवा करते थे।
एक दिन की बात है, महर्षि के आश्रम पर रुद्र, आदित्य, अश्विनीकुमार, इंद्र, विष्णु यम और अग्नि आए। देवासुर संग्राम समाप्त हुआ था जिसमें देवताओं ने दैत्यों को परास्त कर दिया था। विजय के कारण सभी देवता हर्षित हो रहे थे। उन्होंने आकर यह प्रसन्नता-भरा समाचार महर्षि को सुनाया। महर्षि ने उक्त देवताओं का समुचित स्वागत किया और उनके आने का कारण पूछा।
देवताओं ने कहा, ‘‘ आप इस पृथ्वी के कल्पवृक्ष हैं। आप जैसे तपस्वी ऋषि की यदि हमारे ऊपर कृपा हो तो हमारे मार्ग में किसी प्रकार की कठिनाई उपस्थित नहीं हो सकती।"
‘‘हे मुनिश्रेष्ठ ! जीवित मनुष्यों के जीवन का इतना ही फल है कि तीर्थों में स्नान, समस्त प्राणियों पर दया और आप जैसे तपस्वी महर्षि के दर्शन करें। इस समय हम दैत्यों को परास्त करके आए हैं और इसके पश्चात् आपके दर्शन करके हमारी प्रसन्नता दूनी बढ़ गई है। अब हमारे पास ये अस्त्र-शस्त्र हैं। अब हम यदि इन्हें ले जाकर स्वर्ग में रख भी दें तो हमारे शत्रु किसी तरह पता लगाकर कभी भी इन्हें ले जा सकते हैं, इसलिए हमारा विचार इन अस्त्र-शस्त्रों को आपके आश्रम पर ही रखने का है।

‘‘हे मुनिश्रेष्ठ ! यदि आप आज्ञा दे दें तो इन्हें हम यहीं छोड़ जाएँ। इससे अधिक उपयुक्त स्थान हमें नहीं मिल सकता, क्योंकि यहाँ से दैत्य इनको चुराकर नहीं ले जा सकेंगे।"
‘‘आपकी तपस्या के प्रभाव से आपका स्थान परम सुरक्षित है। इसलिए हम अपने अस्त्र-शस्त्रों को यहाँ छो़ड़कर निश्चिंत होकर अपने लोक को जाना चाहते हैं। आप इसके लिए आज्ञा दीजिए।’’
देवताओं की बात सुनकर महर्षि दधीचि ने अपने सरल स्वभाव के कारण कह दिया, ‘‘देवताओं ! मेरा जीवन तो सदा दूसरों के उपकार के लिए ही व्यतीत हुआ है और इसी तरह होगा। तुम अपने अस्त्र-शस्त्रों को यहाँ रख सकते हो। मुझे इसमें किसी प्रकार की आपत्ति नहीं है।’’
 देवता निश्चिंत होकर चले गए। जब दैत्यों को पता चला कि देवताओं के अस्त्र-शस्त्र महर्षि के आश्रम पर हैं तो वे अनेक प्रकार के उपद्रव मचाने लगे और महर्षि को यह शंका हो उठी कि कहीं दैत्य इन अस्त्र-शस्त्रों को चुराकर न ले जाएँ।
पूरे एक हज़ार वर्ष व्यतीत हो चुके थे। देवता किसी प्रकार का समाचार तक लेने नहीं आए थे। तब एक दिन महर्षि ने अपनी पत्नी से कहा, ‘‘प्रिये ! देवताओं को गए पूरी एक सहस्राब्दी बीत गई, अभी तक उन्होंने अपने अस्त्र-शस्त्रों को आकर नहीं सँभाला। दैत्य महापराक्रमी हैं। उन्हें पता तो लग ही गया है कि देवताओं के अस्त्र-शस्त्र हमारे पास हैं, कहीं वे आकर उन्हें छीन न ले जाएँ। तब तो बड़ी विकट परिस्थिति उपस्थित हो जाएगी। उससे पहले हमारे लिए कौन-सा उचित मार्ग है, इस विषय में अपनी सम्मति प्रकट करो ?’’
उनकी पत्नी कोई उपाय सोचने लगी, लेकिन उसकी समझ में कुछ भी नहीं आया। तब महर्षि ने ही सोचकर कहा, ‘‘देवी ! यदि तुम्हारी सम्मति हो तो मैं इन सभी अस्त्र-शस्त्रों को शक्तिहीन कर दूँ ?’’
गभस्तिनी ने यह बात स्वीकार कर ली। उसी क्षण महर्षि ने मंत्रोच्चारण करते हुए उन सभी अस्त्र-शस्त्रों को पवित्र जल में नहलाया और फिर वे उस सर्वास्त्रमय परम पवित्र और तेज-युक्त जल को पी गए। तेज निकलने से सभी अस्त्र-शस्त्र शक्तिहीन हो गए। धीरे-धीरे वे नष्ट हो गए।

इसके कुछ समय पश्चात् देवता महर्षि के पास आए और उन्होंने अपने अस्त्र-शस्त्रों को वापस माँगा। देवासुर संग्राम फिर प्रारंभ हो चुका था। दैत्यों ने अपनी शक्ति बढ़ाकर देवताओं पर आक्रमण कर दिया था। देवताओं के अस्त्र-शस्त्र माँगने पर महर्षि ने कहा, ‘‘आपके अस्त्र-शस्त्र तो मेरे शरीर के अंदर स्थित हैं ! पूरी सहस्राब्दी बीत गई, तब भी आप उन्हें लेने नहीं आए। तब मैंने इस भय से कि कहीं दैत्य इनको चुराकर न ले जाएँ, उन्हें मंत्रोच्चारण के साथ पवित्र जल से स्नान कराकर और उस जल को पीकर पूरी तरह शक्तिहीन कर दिया। अब उन सभी अस्त्र-शस्त्रों का बल मेरे शरीर में पहुँच चुका है, आप लोग जैसा कहें वैसा ही मैं करूँ !’’
महर्षि की बात सुनकर देवता विनीत स्वर में कहने लगे, ‘‘हे मुनिश्रेष्ठ ! अस्त्र-शस्त्रों के बिना तो हम निस्सहाय-से असुरों के हाथों मारे जाएँगे। आप किसी प्रकार शस्त्रों का प्रबंध करिए। आप जानते ही हैं कि दैत्य महापराक्रमी हैं और अबकी बार तो उन्होंने अपार सैन्य दल एकत्रित कर लिया है। किसी प्रकार हमारी रक्षा करिए !’’
यह सुनकर दधीचि बोले, ‘‘हे देवताओं ! मेरा उद्देश्य तुम्हारा अहित करने का कभी नहीं था। अब तो तुम्हारे सारे अस्त्र-शस्त्र मेरी अस्थियों में मिल चुके हैं। यदि तुम उनको ले जाना चाहो तो ले जा सकते हो।’’
दधीचि ने उसी समय समाधि लगा ली और अपने प्राण त्याग दिए। कुछ ही क्षण पश्चात् उनका शरीर निष्प्राण हो गया। यह देखकर देवताओं ने विश्वकर्मा से कहा, ‘‘हे विश्वकर्मा ! अब महर्षि की अस्थियाँ लेकर आप अनेक अस्त्र-शस्त्र बना डालिए।’’

विश्वकर्मा ने कहा, ‘‘देवताओं ! यह ब्राह्मण का शरीर है। मैं इसका उपयोग करते हुए डरता हूँ। जब केवल इनकी अस्थियाँ मात्र रह जाएँगी, तभी मैं इसमें हाथ लगाऊँगा और उनसे अस्त्र-शस्त्र का निर्माण करूँगा।’’
विश्वकर्मा के हृदय के भय को दूर करने के लिए देवताओं ने गौओं से कहा, ‘‘हे गौओ ! हम तुम्हारा मुख वज्र के समान कर देते हैं। तुम जाकर महर्षि दधीचि के निष्प्राण शरीर को विदीर्ण कर डालो और उनका अस्थिपंजर शेष छोड़कर बाकी सभी मांस को अलग कर दो।’’
देवताओं का आदेश मानकर गौओं ने जाकर महर्षि के शरीर को विदीर्ण कर डाला और केवल अस्थिमात्र ही खड़ी छो़ड़ दी। देवताओं ने प्रसन्न होकर उन अस्थियों को उठा लिया और वे उन्हें लेकर अपने लोक को चले गए। mudh jh<+ dh gìh ls ,d cgqr 'kfDr'kkyh gfFk;kj cuk ftldk uke iM+k otzk;q¼ A
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परिवर्तन के लिए प्रतिज्ञा

परिवर्तन के लिए प्रतिज्ञा 


1. अपनी लगन को ऐसी अग्नि का रूप बनाए जिस अग्नि में सर्व व्यर्थ संकल्प ,विशेष कमजोरी व विशेष संस्कार जो समय प्रति समय विघ्न बनता है ,सारे पुराने संस्कार भस्म हो जायें/तभी कहेंगे की स्वयं में परिवर्तन लाया /

2. मधुबन को अश्वमेध रूद्र- ज्ञान महायज्ञ कहा जाता है /महायज्ञ में महाआहुति डाली जाती है /इसमें अनेक आत्माओं के लगन की अग्नि की सामूहिक आहुति डालते हैं ,जिसमे सर्व कमजोरियां आगे के लिए भस्म हो जाती हैं /

3. आहुतु सम्पूर्ण समर्पण करने का साहश हो ,पुरानी दुनिया में काम आयेगी इस लिए थोडा रखना नहीं है / करें ना करें ,होगा नही होगा जैसे संशय वाले संकल्प करने से बुद्धि रुपी हाथ आगे पीछे हो जाता है जिससे सम्पूर्ण स्वाहा नहीं होता किनारा रह जाता है ,बिखर जाता है ,जब सम्पूर्ण स्वाहा नहीं तो सम्पूर्ण सफल नही होता /

4. पहले हिम्मत कम है फिर संकल्प पावरफुल नहीं है तो कर्म में बल भी नहीं होगा इसलिए फल भी कम होगा /

5. सोचना कम है करना ज्यादा है /विनाश न हुआ तो, स्वर्ग न आया तो ,पहुंचेगे या नहीं पहुंचेंगे ,लोग क्या कहेंगे ऐसे होशियार नहीं बनना है /हाथ आगे बढाकर सेंक लगने से हाथ खींचना नहीं है /थोड़ा विघ्न आने पर कदम पीछे नहीं करना है /

6. नालेज्फुल होते हुए भी कोई ना करे ,जान बूझ करके भी ना करे ,लाइर्ट रूप और might रूप होते हुए भी कोई ना करे तो इसका कारण है नालेज बुद्धि तक है समझ तक है इसे प्रक्टिकल में लाना और समाना नही आत्ता है /

7. जितना धारणा में आता है संस्कार बन जाता है ,नालेज्फुल का अर्थ है हर एक कर्मिन्द्रियों में नालेज समा जाये ,तब आँखे और वृत्ति धोखा नहीं खायेंगी /

8. सोंचते हैं फूल करने की बात और होती है आधी,सोचने और करने में अंतर हो जाता है इसका कारण है संकल्प रुपी बिज डालकर अलबेले हो जाते हैं /बिज की संभाल और पालना नही करते /मनसा और वाचा पर अटेन्सन नहीं देते /जैसे बिज को रोज पानी देते हैं वैसे संकल्पों को रोज रिवाइज नहीं करते /

9. पुरुषार्थ की एक भी कमी का दाग बहुत बड़ा दिखता है ,और यह छोटा सा दाग मेरी वेलु कम कर देता है /इसलिए आराम पसंद के संस्कार नहीं मगर चिंतन का संकल्प हो /चिंतन एक एक संस्कार के चिंता के रूप में होना चाहिए /

10. यह नहीं तो अलबेलापन है आराम पसंद देवता के स्टेज का संस्कार है /ब्राह्मणों के संस्कार त्यागमूर्त के हैं /त्याग बिना भाग्य नहीं बनता /

11. अच्छा कर लेंगे देखा जाएगा यह आराम पसंदी के संस्कार हैं ,जरूर करूंगा यह ब्राह्मंपन के संस्कार है /

12. अब शुभ चिंतन करने की,कमजोरी को दूर करने की सम्पूर्ण बनने की और प्रत्यक्ष फल देने की चिंता लगनी चाहिए /

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