03-04-15 प्रातः मुरली ओम् शान्ति “बापदादा”
मधुबन
“मीठे
बच्चे - यह तुम्हारा बहुत अमूल्य जन्म है, इसी जन्म में तुम्हें मनुष्य से देवता बनने
के लिए पावन बनने का पुरूषार्थ करना है”
प्रश्न:- ईश्वरीय सन्तान
कहलाने वाले बच्चों की मुख्य धारणा क्या होगी?
उत्तर:- वह आपस में बहुत-बहुत क्षीरखण्ड होकर रहेंगे। कभी लूनपानी नहीं होंगे।
जो देह-अभिमानी मनुष्य हैं वह उल्टा सुल्टा बोलते, लड़ते झगड़ते हैं। तुम बच्चों में वह आदत नहीं हो सकती। यहाँ तुम्हें दैवीगुण
धारण करने हैं, कर्मातीत अवस्था को पाना है।
ओम् शान्ति।
पहले-पहले बाप
बच्चों को कहते हैं देही-अभिमानी भव। अपने को आत्मा समझो। गीता आदि में भल क्या भी
है परन्तु वह सभी हैं भक्ति मार्ग के शास्त्र। बाप कहते हैं मैं ज्ञान का सागर
हूँ। तुम बच्चों को ज्ञान सुनाता हूँ। कौन- सा ज्ञान सुनाते हैं? सृष्टि के अथवा ड्रामा के आदि-मध्य-अन्त
का नॉलेज सुनाते हैं। यह है पढ़ाई। हिस्ट्री और जॉग्राफी है ना। भक्ति मार्ग में
कोई हिस्ट्री-जॉग्राफी नहीं पढ़ते। नाम भी नहीं लेंगे। साधू-सन्त आदि बैठ शास्त्र
पढ़ते हैं। यह बाप तो कोई शास्त्र पढ़कर नहीं सुनाते। तुमको इस पढ़ाई से मनुष्य से
देवता बनाते हैं। तुम आते ही हो मनुष्य से देवता बनने। हैं वह भी मनुष्य, यह भी मनुष्य। परन्तु यह बाप को
बुलाते हैं कि हे पतित-पावन आओ। यह तो जानते हो देवतायें पावन हैं। बाकी तो सभी
अपवित्र मनुष्य हैं, वह देवताओं
को नमन करते हैं। उनको पावन,
अपने को पतित समझते हैं। परन्तु देवतायें पावन कैसे बनें, किसने बनाया-यह कोई मनुष्य मात्र नहीं
जानते। तो बाप समझाते हैं अपने को आत्मा समझ बाप को याद करना-इसमें ही मेहनत है।
देह-अभिमान नहीं होना चाहिए। आत्मा अविनाशी है, संस्कार भी आत्मा में रहते हैं। आत्मा ही अच्छे वा बुरे
संस्कार ले जाती है इसलिए अब बाप कहते हैं देही-अभिमानी बनो। अपनी आत्मा को भी कोई
जानते नहीं हैं। जब रावण राज्य शुरू होता है तो अन्धियारा मार्ग शुरू होता है।
देह-अभिमानी बन जाते हैं।
तो बाप बैठ समझाते
हैं कि यह बड़े से बड़ी भूल है। तुम यहाँ किसके पास आये हो? इनके पास नहीं। मैने इनमें प्रवेश
किया है। इनके बहुत जन्मों के अन्त का यह पतित जन्म है। बहुत जन्म कौन से? वह भी बताया, आधाकल्प है पवित्र जन्म, आधाकल्प है पतित जन्म। तो यह भी पतित
हो गया। ब्रह्मा अपने को देवता वा ईश्वर नहीं कहता। मनुष्य समझते हैं प्रजापिता
ब्रह्मा देवता था तब कहते हैं ब्रह्मा देवताए नम:। बाप समझाते हैं ब्रह्मा जो पतित
था, बहुत जन्मों के अन्त
में वह फिर पावन बन देवता बनते हैं। तुम हो बी.के.। तुम भी ब्राह्मण, यह ब्रह्मा भी ब्राह्मण। इनको देवता
कौन कहता है? ब्रह्मा को
ब्राह्मण कहा जाता है, न कि देवता।
यह जब पवित्र बनते हैं तो भी ब्रह्मा को देवता नहीं कहेंगे। जब तक विष्णु
(लक्ष्मी- नारायण) न बनें तब तक देवता नहीं कहेंगे। तुम ब्राह्मण-ब्राह्मणियाँ हो।
तुमको पहले-पहले शूद्र से ब्राह्मण, ब्राह्मण से देवता बनाता हूँ। यह तुम्हारा अमूल्य हीरे जैसा
जन्म कहा जाता है। भल कर्म भोग तो होता ही है। तो अब बाप कहते हैं अपने को आत्मा
समझ मुझ बाप को याद करते रहो। यह प्रैक्टिस होगी तब ही विकर्म विनाश होंगे।
देहधारी समझा तो विकर्म विनाश नहीं होंगे। आत्मा ब्राह्मण नहीं है, शरीर साथ है तब ही ब्राह्मण फिर
देवता. . . शूद्र आदि बनते हैं। तो अब बाप को याद करने की मेहनत है। सहजयोग भी है।
बाप कहते हैं सहज ते सहज भी है। कोई-कोई को फिर डिफीकल्ट भी बहुत भासता है।
घड़ी-घड़ी देह-अभिमान में आकर बाप को भूल जाते हैं। टाइम तो लगता है ना देही-अभिमानी
बनने में। ऐसे हो नहीं सकता कि अभी तुम एकरस हो जाओ और बाप की याद स्थाई ठहर जाए।
नहीं। कर्मातीत अवस्था को पा लें फिर तो शरीर भी रह न सके। पवित्र आत्मा हल्की हो
एकदम शरीर को छोड़ दे। पवित्र आत्मा के साथ अपवित्र शरीर रह न सके। ऐसे नहीं कि यह
दादा कोई पार पहुँच गया है। यह भी कहते हैं - याद की बड़ी मेहनत है। देह-अभिमान में
आने से उल्टा-सुल्टा बोलना, लड़ना, झगड़ना आदि चलता है। हम सब आत्मायें
भाई-भाई हैं फिर आत्मा को कुछ नहीं होगा। देह-अभिमान से ही रोला हुआ है। अब तुम
बच्चों को देही-अभिमानी बनना है। जैसे देवतायें क्षीरखण्ड हैं ऐसे तुम्हें भी आपस
में बहुत खीरखण्ड होकर रहना चाहिए। तुम्हें कभी लून-पानी नहीं होना है। जो
देह-अभिमानी मनुष्य हैं वह उल्टा-सुल्टा बोलते, लड़ते-झगड़ते हैं। तुम बच्चों में वह आदत नहीं हो सकती। यहाँ
तो तुमको देवता बनने के लिए दैवीगुण धारण करने हैं। कर्मातीत अवस्था को पाना है।
जानते हो यह शरीर, यह दुनिया
पुरानी तमोप्रधान है। पुरानी चीज से, पुराने संबंध से नफरत करनी पड़ती है। देह-अभिमान की बातों को
छोड़ अपने को आत्मा समझ बाप को याद करना है तो पाप विनाश होंगे। बहुत बच्चे याद में
फेल होते हैं। ज्ञान समझाने में बड़े तीखे जाते हैं परन्तु याद की मेहनत बहुत बड़ी
है। बड़ा इम्तहान है। आधाकल्प के पुराने भक्त ही समझ सकते हैं। भक्ति में जो पीछे
आये हैं वह इतना समझ नहीं सकेंगे।
बाप इस शरीर में आकर
कहते हैं मैं हर 5 हजार वर्ष बाद आता हूँ। मेरा ड्रामा में पार्ट है और मैं एक ही
बार आता हूँ। यह वही संगमयुग है। लड़ाई भी सामने खड़ी है। यह ड्रामा है ही 5 हजार वर्ष
का। कलियुग की आयु अभी 40 हजार वर्ष और हो तो पता नहीं क्या हो जाए। वह तो कहते
हैं भल भगवान भी आ जाए तो भी हम शास्त्र की राह नहीं छोड़ेंगे। यह भी पता नहीं है
कि 40 हजार वर्ष बाद कौन-सा भगवान आयेगा। कोई समझते कृष्ण भगवान आयेगा। थोड़ा ही
आगे चल तुम्हारा नाम बाला होगा। परन्तु वह अवस्था होनी चाहिए। आपस में बहुत-बहुत
प्रेम होना चाहिए। तुम ईश्वरीय सन्तान हो ना। तुम खुदाई खिदमतगार गाये हुए हो।
कहते हो हम बाबा के मददगार हैं पतित भारत को पावन बनाने। बाबा कल्प- कल्प हम
आत्म-अभिमानी बन आपकी श्रीमत पर योगबल से अपने विकर्म विनाश करते हैं। योगबल है
साइलेन्स बल। साइलेन्स बल और साइंस बल में रात-दिन का फर्क है। आगे चलकर तुमको
बहुत साक्षात्कार होते रहेंगे। शुरू में कितने बच्चों ने साक्षात्कार किये, पार्ट बजाये। आज वह हैं नहीं। माया खा
गई। योग में न रहने से माया खा जाती है। जबकि बच्चे जानते हैं भगवान हमको पढ़ाते
हैं तो फिर कायदेसिर पढ़ना चाहिए। नहीं तो बहुत-बहुत कम पद पायेंगे। सजायें भी बहुत
खायेंगे। गाते भी हैं ना - जन्म-जन्मान्तर का पापी हूँ। वहाँ (सतयुग में) तो रावण
का राज्य ही नहीं तो विकार का नाम भी कैसे हो सकता है। वह है ही सम्पूर्ण
निर्विकारी राज्य। वह रामराज्य,
यह है रावणराज्य। इस समय सब तमोप्रधान हैं। हर एक बच्चे को अपनी स्थिति की
जांच करनी चाहिए कि हम बाप की याद में कितना समय रह सकते हैं? दैवीगुण कहाँ तक धारण किए हैं? मुख्य बात, अन्दर देखना है हमारे में कोई अवगुण
तो नहीं हैं? हमारा
खान-पान कैसा है? सारे दिन
में कोई फालतू बात वा झूठ तो नहीं बोलते हैं? शरीर निर्वाह अर्थ भी झूठ आदि बोलना पड़ता है ना। फिर मनुष्य
धर्माऊ निकालते हैं तो पाप हल्का हो जाए। अच्छा कर्म करते हैं तो उसका भी रिटर्न
मिलता है। कोई ने हॉस्पिटल बनवाया तो अगले जन्म में अच्छी हेल्थ मिलेगी। कॉलेज
बनवाया तो अच्छा पढ़ेंगे। परन्तु पाप का प्रायश्चित क्या है? उसके लिए फिर गंगा स्नान करने जाते
हैं। बाकी जो धन दान करते हैं तो उसका दूसरे जन्म में मिल जाता है। उसमें पाप कटने
की बात नहीं रहती। वह होती है धन की लेन-देन, ईश्वर अर्थ दिया, ईश्वर ने अल्पकाल के लिए दे दिया। यहाँ तो तुमको पावन बनना
है सिवाए बाप की याद के और कोई उपाय नहीं। पावन फिर पतित दुनिया में थोड़ेही
रहेंगे। वह ईश्वर अर्थ करते हैं इनडायरेक्ट। अभी तो ईश्वर कहते हैं-मैं सम्मुख आया
हूँ पावन बनाने। मैं तो दाता हूँ,
मुझे तुम देते हो तो मैं रिटर्न में देता हूँ। मैं थोड़ेही अपने पास रखूँगा।
तुम बच्चों के लिए ही मकान आदि बनाए हैं। सन्यासी लोग तो अपने लिए बड़े-बड़े महल आदि
बनाते हैं। यहाँ शिवबाबा अपने लिए तो कुछ नहीं बनाते। कहते हैं इसका रिटर्न तुमको
21 जन्मों के लिए नई दुनिया में मिलेगा क्योंकि तुम सम्मुख लेन-देन करते हो। पैसा
जो देते हो वह तुम्हारे ही काम लगता है। भक्ति मार्ग में भी दाता हूँ तो अभी भी
दाता हूँ। वह है इनडायरेक्ट,
यह है डायरेक्ट। बाबा तो कह देते हैं जो कुछ है उनसे जाकर सेन्टर खोलो। औरों
का कल्याण करो। मैं भी तो सेन्टर खोलता हूँ ना। बच्चों का दिया हुआ है, बच्चों को ही मदद करता हूँ। मैं
थोड़ेही अपने साथ पैसा ले आता हूँ। मैं तो आकर इनमें प्रवेश करता हूँ, इनके द्वारा कर्तव्य कराता हूँ। मुझे
तो स्वर्ग में आना नहीं है। यह सब कुछ तुम्हारे लिए है, मैं तो अभोक्ता हूँ। कुछ भी नहीं लेता
हूँ। ऐसे भी नहीं कहता हूँ कि पांव पड़ो। हम तो तुम बच्चों का मोस्ट ओबीडियन्ट
सर्वेन्ट हूँ। यह भी तुम जानते हो वही तुम मात-पिता..... सब कुछ है। सो भी निराकार
है। तुम कोई गुरू को कब त्वमेव माता-पिता नहीं कहेंगे। गुरू को गुरू, टीचर को टीचर कहेंगे। इनको माता-पिता
कहते हो। बाप कहते हैं मैं कल्प-कल्प एक ही बार आता हूँ। तुम ही 12 मास बाद जयन्ती
मनाते हो। परन्तु शिवबाबा कब आया,
क्या किया, यह किसको भी
पता नहीं है। ब्रह्मा-विष्णु-शंकर के भी आक्यूपेशन का पता नहीं क्योंकि ऊपर में
शिव का चित्र उड़ा दिया है। नहीं तो शिवबाबा करन-करावनहार है। ब्रह्मा द्वारा कराते
हैं। यह भी तुम बच्चे जानते हो,
कैसे आकर प्रवेश कर और करके दिखाते हैं। गोया खुद कहते हैं तुम भी ऐसे करो। एक
तो अच्छी रीति पढ़ो। बाप को याद करो, दैवीगुण धारण करो। जैसे इनकी आत्मा कहती है। यह भी कहते हैं
मैं बाबा को याद करता हूँ। बाबा भी जैसे साथ में है। तुम्हारी बुद्धि में है हम नई
दुनिया के मालिक बनने वाले हैं। तो चाल-चलन, खान-पान आदि सब बदलना है। विकारों को छोड़ना है। सुधरना तो
है। जैसे-जैसे सुधरेंगे फिर शरीर छोड़ेंगे तो ऊंच कुल में जन्म लेंगे। नम्बरवार कुल
के भी होते हैं। यहाँ भी बहुत अच्छे-अच्छे कुल होते हैं। 4-5 भाई सब आपस में इकट्ठे
रहते हैं, कोई झगड़ा
आदि नहीं होता है। अभी तुम बच्चे जानते हो हम अमरलोक में जाते हैं, जहाँ काल नहीं खाता। डर की कोई बात
नहीं। यहाँ तो दिन- प्रतिदिन डर बढ़ता जायेगा। बाहर निकल नहीं सकेंगे। यह भी जानते
हैं यह पढ़ाई कोटों में कोई ही पढ़ेंगे। कोई तो अच्छी रीति समझते हैं, लिखते भी हैं बहुत अच्छा है। ऐसे
बच्चे भी आयेंगे जरूर। राजधानी तो स्थापन होनी है ना। बाकी थोड़ा टाइम बचा है।
बाप उन पुरुषार्थी
बच्चों की बहुत-बहुत महिमा करते हैं जो याद की यात्रा में तीखी दौड़ी लगाने वाले
हैं। मुख्य है याद की बात। इससे पुराने हिसाब-किताब चुक्तू होते हैं। कोई-कोई
बच्चे बाबा को लिखते हैं-बाबा हम इतने घण्टे रोज याद करता हूँ तो बाबा भी समझते
हैं यह बहुत पुरुषार्थी है। पुरूषार्थ तो करना है ना इसलिए बाप कहते हैं आपस में
कभी भी लड़ना- झगड़ना नहीं चाहिए। यह तो जानवरों का काम है। लड़ना-झगड़ना यह है
देह-अभिमान। बाप का नाम बदनाम कर देंगे। बाप के लिए ही कहा जाता है सतगुरू का निंदक
ठौर न पाये। साधुओं ने फिर अपने लिए कह दिया है। तो मातायें उनसे बहुत डरती हैं कि
कोई श्राप न मिल जाए। अभी तुम जानते हो हम मनुष्य से देवता बन रहे हैं।
सच्ची-सच्ची अमरकथा सुन रहे हैं। कहते हो हम इस पाठशाला में आते हैं श्री
लक्ष्मी-नारायण का पद पाने लिए और कहाँ ऐसे कहते नहीं। अभी हम जाते हैं अपने घर।
इसमें याद का पुरूषार्थ ही मुख्य है। आधाकल्प याद नहीं किया है। अब एक ही जन्म में
याद करना है। यह है मेहनत। याद करना है, दैवीगुण धारण करना है, कोई पाप कर्म किया तो सौ गुणा दण्ड पड़ जायेगा। पुरूषार्थ
करना है, अपनी उन्नति
करनी है। आत्मा ही शरीर द्वारा पढ़कर बैरिस्टर वा सर्जन आदि बनती है ना। यह
लक्ष्मी-नारायण पद तो बहुत ऊंचा है ना। आगे चल तुमको साक्षात्कार बहुत होंगे। तुम
हो सर्वोत्तम ब्राह्मण कुल भूषण,
स्वदर्शन चक्रधारी। कल्प पहले भी यह ज्ञान तुमको सुनाया था। फिर तुमको सुनाते
हैं। तुम सुनकर पद पाते हो। फिर यह ज्ञान प्राय: लोप हो जाता है। बाकी यह शास्त्र
आदि सब हैं भक्ति मार्ग के। अच्छा!
मीठे-मीठे सिकीलधे
बच्चों प्रति मात-पिता बापदादा का याद-प्यार और गुडमॉर्निंग। रूहानी बाप की रूहानी
बच्चों को नमस्ते।
धारणा के लिए मुख्य सार :-
1) अन्दर अपनी जांच करनी है - हम
बाप की याद में कितना समय रहते हैं? दैवीगुण कहाँ तक धारण किये हैं? हमारे में कोई अवगुण तो नहीं
हैं? हमारा खान-पान, चाल-चलन रॉयल है? फालतू बातें तो नहीं करते? झूठ तो नहीं बोलते हैं?
2) याद का चार्ट बढ़ाने के लिए
अभ्यास करना है - हम सब आत्मायें भाई-भाई हैं। देह-अभिमान से दूर रहना है। अपनी
एकरस स्थिति जमानी है, इसके लिए टाइम देना है।
वरदान:- विजयीपन के
नशे द्वारा सदा हर्षित रहने वाले सर्व आकर्षणों से मुक्त भव!
विजयी रत्नों का
यादगार-बाप के गले का हार आज तक पूजा जाता है। तो सदा यही नशा रहे कि हम बाबा के
गले का हार विजयी रत्न हैं, हम विश्व के
मालिक के बालक हैं। हमें जो मिला है वह किसी को भी मिल नहीं सकता-यह नशा और खुशी
स्थाई रहे तो किसी भी प्रकार की आकर्षण से परे रहेंगे। जो सदा विजयी हैं वो सदा हर्षित
हैं। एक बाप की याद के ही आकर्षण में आकर्षित हैं।
स्लोगन:- एक के अन्त में खो जाना अर्थात् एकान्तवासी
बनना।
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