पिता
श्री ब्रह्मा बाबा
(जिनके माध्यम से परमपिता शिव ने ज्ञान दिया)
संसार में वे लोग महान् और अनुकरणीय हैं,
जिनका जीवन केवल अपने लिए नहीं, बल्कि मानवता
की सेवा में समर्पित हो। अपने लिए तो सब जीते हैं, परंतु जो
दूसरों के लिए सोचता है, वही महापुरुष होता है। जब जगत में
मानवता कराह रही थी, मानवीय संवेदनाएं शून्य होने लगी थी,
तब अज्ञानता के बढते तम को दूर करने के लिए एक ऐसी क्रांति की
आवश्यकता महसूस होने लगी थी, जिससे मानवीय एकता और करुणा के
मध्य एक मूल्यनिष्ठसमाज की स्थापना हो सके। ऐसी ही घडी में एक महान् विभूति का
जन्म हुआ और आध्यात्मिक क्रांति की नींव पडी। इस महानायकका जन्म सन् 1876 में सिंध प्रांत में एक कुलीन परिवार में हुआ। इनके बचपन का नाम लेखराज था। परंतु ये बचपन से ही
इतने धर्म परायण थे कि इनका व्यक्तित्व कुशल एवं प्रभावी होने के कारण हर वर्ग और
उम्र के लोग इन्हें प्यार से दादा कहते थे। इन्हें किसी की भी पीडा खुद की पीडा महसूस होती थी। बाल्यकाल में
ही इनके पिता की मृत्यु हो गई। दादा लेखराज प्रतिदिन सर्व मनुष्यात्माओंको दु:ख की
पीडा से मुक्ति के लिए परमात्मा से आराधना करते थे। दादा लेखराज ने हीरे-जवाहरात
का व्यापार शुरू किया और देखते ही देखते वे इस व्यापार में विश्व प्रसिद्ध हो गए।
दादा के मन में सर्व सुखोंवाली दुनिया की खोज निरंतर रहती थी, जिसमें कि दु:ख-दरिद्रता का नामोनिशान न हो। इसके लिए दादा ने अपने जीवन
काल में बारह गुरु किए थे। फिर भी उन्हें सच्चे परमात्मा पथ का राही कोई नहीं बना
सका। साठ साल की आयु में दादा लेखराज के जीवन में एक महान् परिवर्तन आया। एक दिन
जब वे वाराणसी में अपने मित्र के यहां आए थे तब उन्हें इस कलियुगी दुनिया के
महाविनाशऔर नई दुनिया की स्थापना का साक्षात्कार हुआ। उस दौरान उनके तन में
ईश्वरीय शक्ति की उपस्थिति थी। उस ईश्वरीय शक्ति ने दादा के अतीत और आदिकाल के
संस्मरण सुनाए तथा कहा कि अब इस दुनिया को नई दुनिया बनाने का महान कार्य तुम्हें
करना है। दादा को यह बात बिल्कुल समझ में नहीं आई और वे इसे अपने गुरुओं की करामात
समझ उनसे इनके बारे में पूछने गए। सभी गुरु समझ गए थे कि यह तो ईश्वरीय सत्ता का
ही कार्य है। ईश्वरीय सत्ता ने उनकी उलझनों को समाप्त कर दिया और अपना परिचय सर्व
आत्माओं के पिता कल्याणकारी परमात्मा शिव के रूप में दिया। इस महान कार्य के लिए
परमात्मा ने उन्हें उनका नाम दादा लेखराज से प्रजापिताब्रह्मा के नाम से नामकरण
किया और माताओं-बहनों को ईश्वरीय शक्ति के रूप में आगे करने का आदेश दिया। इस
आज्ञानुसार दादा लेखराज ने माताओं-बहनों के कोमल स्वभाव को जान उन्हें ईश्वरीय
शक्ति के रूप में प्रत्यक्ष करने के लिए उन्हें वैभवों से दूर रहकर सभी भौतिक
विद्याओं से परे राजयोग की शिक्षा के माध्यम से परमात्मशक्ति को अपनाकर अपने अंदर
छिपी शक्तियों को प्रत्यक्ष करने को कहा। सभी धर्म और आध्यात्मिक लोगों की भावनाओं
का सम्मान करते हुए दादा लेखराज ने उन्हें धर्म, अध्यात्म और
सत्य तपस्या से अवगत कराकर उन्हें समाज में पैर जमा चुकी आसुरी शक्तियों से निकाल
दैवी शक्तियों के लिए प्रेरित किया। यहीं से स्व-परिवर्तन से विश्व परिवर्तन के एक
छोटे से कारवां का शुभारंभ हुआ। राजयोग को धार्मिक आध्यात्मिक और वैज्ञानिक विधि
में परिभाषित कर दादा ने सर्व मनुष्यात्माओंके लिए सहज उपलब्ध कराया।
प्रजापिताब्रह्मा बाबा आज साकार में नहीं हैं, परंतु उनकी
सूक्ष्म दृष्टि और शक्ति आज भी लाखों आत्माओं को दैवी गुणों से सजाने का महान
कार्य कर रही है। दादा लेखराज ने हीरे जवाहरात के व्यापार को छोड मनुष्यों के
अन्दर छिपे हीरेतुल्यगुणों को परखने तथा उन्हें पुनस्र्थापितकरने के लिए अपना सब
कुछ ईश्वरीय कार्य में समर्पण कर दिया। इस संस्था की स्थापना सिंध (जो अब
पाकिस्तान में है) में ओम मण्डली के रूप में स्थापित हुई। दादा लेखराज को अनेक
कठिनाइयों का सामना करना पडा। अनेक लांछन और आरोप लगाए गए परंतु विजय सत्य की हुई।
भारत-पाकिस्तान विभाजन के बाद ईश्वरीय शक्ति के आदेशानुसार ब्रह्मा बाबा ने ऋषि
मुनियों की तपोभूमि तथा नक्काशी में दुनिया भर में मशहूर दिलवाडामंदिर और नक्की
झील के समीप तपस्या के लिए चयन किया, जिसका नाम पाण्डव भवन
रखा और यहीं से प्रजापिता ब्रह्माकुमारी ईश्वरीय विश्व-विद्यालय की स्थापना हुई।
धीरे-धीरे ये कारवां बढता गया। बाबा का उद्देश्य एक ऐसी दुनिया का निर्माण करना था,
जहां दु:ख और दरिद्रता का नामोनिशान न हो। इसके लिए वे प्रकृति और
पर्यावरण का ध्यान रख सतोप्रधानबनाने का प्रयास करते रहे। श्वेत वस्त्रों के बीच
सजी बाल ब्रह्मचारिणी बहनों को उन्होंने इस संस्था में आगे रख भारत माता और
वंदेमातरम् बन भारत और विश्व का उद्धार करने का अनुगामी बनाया और बाबा स्वयं एक
निमित्त बन ईश्वरीय सेवा में लगे रहे और पूरे विश्व में अपना प्रभुत्व स्थापित
किया। इस ईश्वरीय कार्य में सर्व मनुष्यात्माओंकी सेवा करते हुए बाबा ने तपस्या की
ज्वाला से अपने आपको सोलह कला संपूर्ण और निर्विकारी बनाया। 18 जनवरी, 1969को अपने नश्वर शरीर का त्याग किया। परंतु
बाबा द्वारा जो आध्यात्मिक शक्ति का बीज बोया गया वो आज विशाल रूप ले लिया है।
बाबा आज भी सूक्ष्म रूप से ईश्वरीय शक्ति से इस आध्यात्मिक क्रांति में सम्मिलित
लोगों को सजा रहे हैं। आज पूरे विश्व के 130देशों में यह
संस्था वट वृक्ष का रूप ले चुकी है और लाखों लोग अपने जीवन को दैवी गुणों से सजाकर
हीरे तुल्य बना रहे हैं।
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