परमात्मा सर्व व्यापक नही है
परमात्मा सर्व व्यापक
नही है
मनुष्य क्या मानते और
कहते आये है?
मनुष्य
यह मानते और कहते आये है कि परमपिता परमात्मा सर्वव्यापक है परन्तु जैसे गर्म लोहे
में अग्नि व्यापक होने पर भी दिखाई नहीं देती वैसे ही सत, चित, आनन्द स्वरूप
परमात्मा सर्वव्यापक होने के वावजूद भी दिखाई नहीं देता | सबमे व्यापक होने के
कारण परमात्मा को बे-अन्त या अनंत भी कहा गया है |
अब परमपिता परमात्मा
शिव क्या समझा रहे हैं ?
अब
परमात्मा कहते हैं - वत्सों, मैं सर्व में व्यापक नहीं हूँ बल्कि सर्व का परमपिता हूँ । मैं अव्यक्त
मूर्त अर्थात् प्रकाशस्वरुप हूँ । मेरा दिव्य रुप ज्योति बिन्दु है । मेरे उस रुप
की बडी प्रतिमा भारत में शिवलिंग के नाम से पूजी जाती है । मेरे उसी रुप का एक
प्रतीक दीप-शिखा भी है, इसलिए मन्दिरों में दीपक भी जगाये
जाते हैं । मेरे अविनाशी ज्योति बिन्दु रुप का दिव्य चक्षु द्वारा साक्षात्कार भी
किया जा सकता है । अत: मुझे कण-कण में, जल-थल में सब में
व्यापक मानना महान भूल करना है क्योंकि वास्तव में सुर्य और तारागण के भी पार जो
ज्योतिलोक, ब्रह्मलोक अथवा परलोक है, वही
मेरा परमधाम है ।
वत्सो, लोहे मे जब अग्नि व्यापक होती है तो आप लोहे
में अग्नी के गुण गर्मी का अनुभव कर सकते हैं । अत: यदि लोहो में अग्नि की तरह,
मैं भी सर्व में व्यापक होता तो आपको मेरे भी आनन्द, शान्ति, प्रेम, पवित्रता,
शक्ति आदि गुणों का सर्व में अनुभव हो पाता । परन्तु आप देखते है कि
आज इस मनुष्य सृष्टि में तो पवित्रता की बजाय अपवित्रता, सुख की बजाय दुःख और
शान्ति की बजाय अशान्ति ही सर्वव्यापक है | अत: मेरे गुण, व्यापक न होकर, विपरीत
गुण व्यापक होने से यह सत्यता स्पष्ट है कि इस सृष्टि में मैं सर्वव्यापक नहीं हूँ
बल्कि माया (काम, क्रोध, लोभ, मोह, अंहकार, ईर्ष्या, द्वेष, सुस्ती आदि) व्यापक है
|
वत्सो,
मैं तो ब्रह्मधाम का वासी हूँ और वहाँ से ही धर्म ग्लानि के समय इस मनुष्य सृष्टि
में ‘आदि सनातन देवी-देवता धर्म’ की पुन: स्थापना के लिए आता हूँ और सभी को मुक्ति
तथा जीवन मुक्ति का ईश्वरीय जन्म-सिद्ध अधिकार दे जाता हूँ |
वत्सो,
मुझ ज्योतिस्वरूप परमात्मा को सर्वव्यापक मानने के परिणामस्वरूप तो मनुष्य का मन
भी सर्व में भटक गया है और मुझ एक ज्योति बिन्दु परमपिता के साथ उनका मनोयोग न
रहने के कारण वे आज सम्पूर्ण पवित्रता, सुख तथा शान्ति रूपी ईश्वरीय वर्से से
वंचित हो गये है |
वत्सो,
मैं कोई लम्बाई-चौड़ाई के विचार से बे-अन्त नहीं हूँ बल्कि अनादि और अविनाशी होने
के कारण बे-अन्त हूँ क्योंकि मेरा कभी भी अन्त अथवा विनाश नहीं होता | मुझे ज्ञान
का सागर, शान्ति का सागर, आनन्द का सागर और प्रेम का सागर कहा गया है और इन अथाह
गुणों के कारण (न कि सर्वव्यापक के कारण) भी मुझे बे-अन्त कहा जा सकता है | इसके
अतिरिक्त जो ऋषि-मुनि मुझे नहीं जान सके, उन्होंने भी अपनी अल्पज्ञता ही के कारण
मुझे बे-अन्त कहा है परन्तु वत्सो, मैं व्यापकता की दृष्टी से बे-अन्त नहीं हूँ |
जैसे मनुष्यात्माएं अनु अथवा बिन्दु के समान सूक्ष्म है, वैसे भी मैं भी उनकी तरह
एक ज्योति कण ही हूँ परन्तु सभी आत्माओं से ज्ञान, शान्ति तथा गुणों में अधिक महान
होने के कारण मुझे परम आत्मा (परमात्मा) कहा गया है |
वत्सो,
अपने परमपिता (परमात्मा) को सर्वव्यापी मानना अर्थात सर्प, मगरमच्छ, कुत्ते,
बिल्ले, पत्थर, ठिक्कर, कण-कण आदि में मानना गोया उनकी ग्लानि करना और महान पाप
करना है | वास्तव में इसी भ्रष्ट मान्यता के कारण संसार में भ्रष्टाचार फैला है |
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